SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ मार्गदर्शक - आचार्य श्री.सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वाधवास प्रस्तावना रूपमें बड़े बड़े मुनियोंका भी स्वरूपस्थित नहीं होने देती । यह राग द्वेष रूप ही समस्त अनका मूल हेतु है। वहीं प्रमुख आन है। स्वाय गीता और पालीपिटको भी इसी इन्द्रको ही पायल बताया है। जन शास्त्रोंका प्रत्येक वाक्य कवायदामन का ही उपदेश देता है। इसीलिए जैनमुतिय तार अकिञ्चनताकी प्रतीक होती है उसमें न का साधन और न रामका आधार स्त्री आदिका साहचर्य ही। वे तो परम वीतरागता और अकिंचनताका पावन सन्देश देती हैं । है इन पयोंके सिवाय - हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा ( ग्लानि ) स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंस वेद ९ नोकषायें हैं। इनके कारण भी आत्मामें विकार परिणति उत्पन्न होती है। अतः मे भी आभव है योग - मन वचन और काय के निमित्तसे आत्माकं प्रदेशोम जो परिस्पन्द अर्थात् क्रिया होती है उसे यांग कहते हैं। योगकी साधारण प्रसिद्धि चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यानके अर्थ में है पर जन परम्पराम कि मन और कासे होनेवाली आत्माकी क्रिया कर्म योग अर्थात् सम्बन्ध कराने में कारण होती है अतः इसे योग कहते हैं और योगनिरोधको ध्यान कहते है आत्मा सक्रिय है। उसके प्रदेशोंम परिन्द होता है। गन वचन और कायर्क निमित्तमे सदा उसमें क्रिया होती रहती है। यह क्रिया जीवन्मुक्तक भी बराबर होती है। पति से कुछ समय पहिले अयोगकेवल अवस्थामै मन वचन कापी किया निरोध होता है और आत्मा निर्मल और निश्चल बन जाता है। सिद्ध अवस्था अस्मानी पूर्ण शुद्धरूपत्रा आविर्भाव होता है न उसमें कर्मजन्य मलिनता रहती और न योगजन्य चंचलता ही प्रधानरूपले आय तो योग ही है। इसीके द्वारा कमका आगमन होता है शुभ योग पुण्यकर्मका आम्रत्र कराता है तथा अशुभ योग पापकर्म के आलवका कारण होता है। सबका शुभचिन्तन तथा अहिंसक विचारधारा शुभ मनोयोग है। हितमित प्रिय सम्भावण शुभ भचनयो है परको बाधा न देनेवाली लाचारपूर्वक प्रवृत्ति शुभ का योग है। इस तरह इस आश्रम तत्व का ज्ञान मुमुक्षु को अवश्य ही होना चाहिए। साधारण प एह तो उसे ज्ञात कर हो लेना चाहिए कि हमारी अमुक प्रवृतियोंसे शुभास्त्रव होता है और अमुक प्रवृत्तियों अशुभासद, तभी वह अनिष्ट प्रवृत्तियों अपनी रक्षा कर सकेगा। सामान्यतया व दो प्रकारका होता है-एक तो कषायानुरञ्जित योगसे होनेवाला साम्भराविक आव जो वयका हेतु होकर संसारको वृद्धि करता है तथा दूसरा केवल योगये होनेवाला वाप आसव जो कपाय न होनेसे आगे वन्धनका कारण नहीं होता । यह आश्य जीवन्मुक्त महात्माओंके वर्तमान शरीरसम्बन्ध तक होता रहता है। यह जीवस्वरूपका विधानक नहीं होता।" · प्रथम साम्परागिक आसव कपायानरंजित यांसे होनेके कारण बन्धक होता है। काय और बांद प्रवृत्ति शुभरूप भी होती है और अशुभरूप भी। अतः शुभ और अशुभ योग अनुसार आलव भी शुभा या गुष्पासन और अशुभासव अर्थात् पापासन भेद से प्रकारका हो जाता है। साधारणतया सान्य वेदनीय, शुभ आए शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुग्छ फर्म है और शेष थानावरण आदि पाविया और 23घातियाँ कर्मप्रकृतियां पापरूप हैं। इस आववमं कषायोंके तीव्र भाव मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञानभाव, आधार और शक्ति आदिको दृष्टिसे तारतम्य होता है। संरम्भ (संकल्प) समारंभ (सामग्री जुटाना) आरम्भ (कार्य शुरुआत) कुल (स्वयं करना) कारित (दूसरोंसे कराना) अनुमत (कार्यकी अनुमोदना करना) मन वचन काय योग और कांध मान माया लोभ से चार कथाएँ परस्पर मिलकर ३४३३४०x१०८ प्रकारके हो जा है। इन अव होता है। आगे ज्ञानावरण आदि कर्मोंमें प्रत्येके आम कारण बताते हैं जनावर दर्शनावरण-जानी और दर्शनयुक्त पृरुपकी या ज्ञान और दर्शनकी प्रशंसा सुनकर भीतरी द्वेषवश उनकी पूहांसा नहीं करना तथा मनमें दुष्टभावका लाना (प्रदोष) ज्ञानकर और ज्ञानके साधनोंका अपलाप करना (निह्नव ) योग्य पात्रको भी मात्सर्यवश ज्ञान नहीं देना, जानमें विघ्न डालना दूसरे द्वारा प्रकाशित ज्ञानको अविनय करना, ज्ञानका गुण कीर्तन न करना, सम्यानको मिथ्याज्ञान कर जानके नाथवा अभिप्राय रखना आदि यदि ज्ञानके हैं तो ज्ञानावरण के आन्दनके कारण होते
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy