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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
आस्वतत्वनिरूपण
भोपण अनर्थ परम्पराओंका मजन करता है। नच्छ स्वार्थक लिए मनाप्य जीवनको व्यर्थ ही खो देता है। अनेक प्रकारके ऊंच नीच भेदोंकी मष्टि करकं मिथ्या अहंकारका पोषण करता है। जिस किमो भी दंवको जिम किसी भी वेषधारीगरको जिस किनो भीगास्थको भय आमा मनंह और लोभमे मानने को तैयार हो जाता है। न उमत्रा अपना कोई गिद्धान्त ई और न ब्यवहार। थोडम प्रलोभनमें बह भव अनर्थ करने का प्रस्तुन हो जाता है। जानि, ज्ञान, पूजा, कुल, बल ऋद्धि, तप और शरीर आदिके रण मदमन होता है और अन्योंको मत समझकर उनका निरस्कार करता है। भय आकाइना, पणा, अन्यदोषप्रकाशन आदि दुर्गणोंका केन्द्र होना है। इसकी वनिक मलमं एक ही बान है और वह है स्व-स्वरूपविभ्रम । उसे आत्मम्बम्परा कोई श्रद्धान नहीं। अन् : बद वाद्य पदामि लभाया रहता । यही मिथ्या दृष्टि सब दोषांकी जननी है, इगीगं अनन्न संसारखा बन्ध्र होता है । दर्शन माहनीय नामर कर्मके उदयमे वह दष्टिमूतता होती है।
अविनि-चारित्रमाल नामक कर्मके उदयमे मनप्यको चारित्र धारण करनक परिणाम नहीं हो पाते। वह चाहना भी है. गोभी कपायोंकासा तीन उदय रहना है जिमसे न ना सकल नाग्त्रि धारण कर पाता और न देश नारिक । कषाएं चार प्रकार की है(१) अनन्तानबन्धी शोध मान माया लोभ-अनन्त मंमारका संच करानेवाली, स्वरूपाचरण
चारित्रका प्रभिबन्ध नग्नवाली, प्रायः मिथ्यात्वसहवारिणी कपाय । पत्थरकी रेखाके समान । (२) अप्रत्याख्यानावग्ण क्रोध मान माया लोभ-देश चारित्र-अणुस्ताको धारण करने के मायोको
न होने देने वाली कषाय । इसके उदयमे जीव थान करतांको भी ग्रहण नहीं कर पाता।
मिट्टीके रेखाके ममान । (२) प्रत्याख्यानावरण कोष मान माया लोभ-संपूर्ण चारित्रकी प्रतिबन्धिका कपाय। इसके उदयसे
जीव सकल न्यान करक मंपूर्ण व्रतोंको धारण नही कर पाता। धूलि रेखाके समान। (४) मज्वलन कोष मान माया लोभ-गणं नारित्रमें विभिन्मात्र दोष उपन्न करनेवाली ऋषाय ।
यथाम्यान चारित्रकी प्रनिन्धिरा। जलरेवाके समान । इस तरह इन्द्रियांक विषयोंम तथा प्राण्यसंगमम मिल प्रयनि होनेसे कर्मोका आयत्र होना है। अविरनिका निरोध का विरतिभान आनेपर कौका पात्र नहीं होता ।
प्रमाद-असावधानीको प्रमाद कहते हैं। काल कॉमें अनादरका भाव होना प्रमाद है। पांचो इन्द्रियाक विषयाम लीन होने के कारण, राजकथा चोरकथा स्त्रीकथा और भोजनकथा इन चार विकाओंम
स लनेके कारण, क्रोध मान माया और लोभ इन चार कपायों में लिप्त रहनके कारण, निद्रा और प्रणयमग्न होनका कारण कर्तव्य पथमं अनादरका भाव होता है। इस असावधानी मे कुशलकर्मके प्रति अनास्था तो होतो ही है, साथही माथ हिसाकी भूमिका भी तैयार होने लगती है। हिमाके मुख्य हेतुओंम प्रमादका स्थान ही प्रमुख है। बाह्यमं जीवका घात हो या न हो किन्तू असावधान और प्रमादी व्यक्तिको हिसाका दोष सुनिश्चित है। प्रयत्नपूर्वक प्रवत्ति करनेवाले अप्रमत्त साधबके द्वारा बाह्य हिसा होनेपर भी वह अहिंसक है। अतः प्रमाद आरवका मुख्य द्वार है। इसीलिए भ० महावीरने बारबार गौतम गणघरको चेताया है कि "समयं गोयम मा समावए ।" अर्थात् गौतम, किसी भी समय प्रमाद न करो ।
___ कषाय-आत्माका स्वरूप स्वभावत: शान्त और निधिकारी है। परन्तु कोध मान माया और लोभ ये चार कपाएं आत्माको कम देती हैं और इसे स्वरूपच्यत कर देती है। ये चारों आत्माकी विभाव दशाएँ हैं। क्रोधकषाय द्वेष रूप है यह द्वेषका कार्य और देषको उपन्न करती है। मान यदि क्रोधको उत्पन्न करता है नो द्वेष रूप है। लोभ रागरूप है। माया रदि लोभको जागृत करती है, तो रागरूप है। तारायं यह कि राग द्वेष मोह की दोषत्रिपुटीम कषायका भाग ही मुख्य है। मोहरूप मिथ्यात्त्र दूर हो जानेपर भो सम्यग्दष्टिको राग-देष रूप कषायें बनी रहती है। जिसमें लोभ कषाय नो पदप्रतिष्ठा और शोलिप्साके