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________________ 333 २८] तृतीय अध्याय मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज प्रकार दश कोड़ाकोड़ी सागरका अवसर्पिणी काल समान होता है। इसके बाद दश कोड़ाकोड़ो सागरका उत्सर्पिणो काल प्रारंभ होता है। उत्सपिणीके अतिदुपमा नामक प्रथम कालके श्रादिमें उनचास दिन पर्यन्त लगातार क्षीरमेघ बरसते हैं, पुनः अमृतमेघ भी उतने हो दिन पर्यन्त बरसते हैं । आदिमें मनुष्योंकी आयु सोलह वर्ष और शरीरकी ऊँचाई एक हाथ रहती है और अन्तमें आयु बीस वर्ष और शरीरको ऊँचाई साढ़े तीन हाथ हो जाती है । मेघोंके बरसनेसे पृथिवी कोमल हो जाती है । ओषधि, तरु, गुल्म, तृग आदि रससहित हो जाते हैं । पूर्वक्ति युगल बिलोसे निकलकर सरस धान्य आदिक उपभागमे सहर्ष रहते हैं। दुषमा नामक द्वितीय कालके आदिमें मनुष्योंकी आयु बीस वर्ष और शरीरकी ऊँचाई साढ़े तीन हाथ होती है। द्वितीय काल में एक हजार वर्ष शेष रहने पर चौदह कुलकर उत्पन्न हाते हैं। ये कुलकर अवसर्पिणी कालके पञ्चम कालके राजाओंकी तरह होते हैं। तेरह कुलकर द्वितीय कालमें ही उत्पन्न होते हैं और मरते भी द्वितीय - कालमें ही है। लेकिन चौदहवाँ कुलकर उत्पन्न तो द्वितीय काल में होता है लेकिन मरता तृतीय कालमें है। चौदहवे कुलकर का पुत्र तोधकर होता है और तीथंकरका पुत्र चक्रवती होता है। इन दोनोंकी उत्पत्ति तीसरे कालमें होती है। दुपमसुषमा नामक तृतीय कालके आदिमें मनुष्योंकी आयु एक सौ बीस वर्ष और शरीरकी ऊँचाई सात हाथ होती है । और अन्तम आयु कोटिपूर्व वर्ष और शरीरकी ऊँचाई सवा पाँच सौ धनुप प्रमाण होती है । इस कालमें शलाकापुरुप उत्पन्न होते हैं । सुषमटुपमा नामक चौथे काल में जघन्य भोगभूमिली रचना, सुषमा नामक पञ्चम कालमें मध्यम भोगभूमिकी रचना और सुषमसुषमा नामक छठे कालमें उत्तम भोगभूमिकी रचना हानी है। चौथे, पांच और छठवे काल में एक भी ईति नहीं होती है। ज्योतिरङ्ग कम्पवृक्षोंक प्रकाशसे रातदिनका विभाग भी नहीं होता है। मेघवृष्टि, शीतबाधा, उष्णबाधा, क्रूरमृगवाधा आदि कभी नहीं होती हैं। इस प्रकार दशकोड़ाकोट्टी सागरका उत्सपिणीकाल समान हो जाता है। पन: अवसर्पिणी काल आता है। इस प्रकार अवसर्पिणी और उत्सपिणी कालका चक्र चलता रहना है। उत्सर्पिणीके देश कोडाकोड़ी सागर और अवसविणों के दश कोडाकोडी सागर इस प्रकार बीस कोडाकाहो सागरका एक कल्प होता है। एक कल्पमं भोगभमिका काल अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है । भोगभूमिके मनुष्य मधुरभाषी, सर्व कलाकुशल, समान भोग बार, पसीनसे रहित और ईर्ष्या, मात्सयं, कृपणता, ग्लानि, भय, विषाद, काम आदिसे रहित होते हैं। उनको इष्टवियाग मोर अनिष्टसंयोग नहीं होता। आयुके अन्तमें जभाई लेने पुरुषकी और छोफसे स्त्रीको मृत्यु हो जाती है। यह नपुंसक नहीं होते हैं । सब मृग( 'पशु) विशिष्ट घासका चरने बार और समान श्रायुवाले होते हैं। अन्य भूमियों का वर्णन ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥ २८ ।। भरत और एरावत क्षेत्रको छोड़कर अन्य भमियाँ सदा अवस्थित रहती हैं। उनमें कालका परिवर्तन नहीं होता । हैमवत, हरि और देवकुरुमें क्रमसे अवसर्पिणी कालके तृतीय. द्वितीय और प्रथम कालकी सत्ता रहती है। इसी प्रकार हैरण्यवत, रम्यक और उत्तर कुरुमें भी कालकी अवस्थिति समझना चाहिये ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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