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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज [ २१४७ ५०४ तार्थवृत्ति हिन्दी-सार लाक आदि मुनियोंमें विशेषता संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थं लिङ्ग लेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ॥ ४७ ॥ संयम, श्रुत, प्रतिसेवन, तीर्थं, लिङ्ग, लेश्या, उपपाद और स्थान इन आठ अनुयोगक द्वारा पुलाक आदि मुनियों में परस्पर विशेषता पाई जाती है। मुलाक, चकुश और प्रतिसेवनाकुशील इन मुनियोंके सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र होते हैं। कषायकुशील के यथाख्यात चारित्रको छोड़कर अन्य चार चारित्र होते हैं। निर्मन्थ और स्नातकके यथाख्यात चारित्र होता है । उत्कृष्टसे पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील मुनि अभिन्नाक्षर शपूर्वके शता होते हैं। अभित्राक्षरका अर्थ है - जो एक भी अक्षर से न्यून न हो। अर्थात् उक्त मुनि दश पूर्व के पूर्ण ज्ञाता होते हैं । कषायकुशील और निर्मन्थ चौदह पूर्व के ज्ञाता होते हैं। जघन्यसे पुलाक याचार शाखका निरूपण करते हैं। वकुश, कुशील और निर्मन्थ आठ प्रवचन ओंका निरूपण कहते हैं। पाँच समिति और तीन गुतियों को आठ प्रवचन मातृका कहते हैं। स्नातकों के केवलज्ञान होता है, श्रुस नहीं होता । व्रतों में दोष लगनेको प्रतिसेवना कहते हैं। पुलाकके पाँच महाव्रतों और रात्रि भोजन त्याग में विराधना होती है। दूसरे के उपरोधसे किसी एक व्रत की प्रतिसेवना होती है। अर्थात् वह एक व्रतका त्याग कर देता है। प्रश्न - रात्रिभोजन त्याग में विराधना कैसे होती है ? उत्तर – इसके द्वारा श्रावक आदिका उपकार होगा ऐसा विचारकर पुलाक मुनि विद्यार्थी आदिको रात्रिमें भोजन कराकर रात्रिभोजनत्याग व्रतका विराधक होता है। के दो भेद हैं--उपकरण बकुश और शरीरवकुश । उपकरणवकुश नाना प्रकार के संस्कारयुक्त उपकरणोंको चाहता है और शरीरबकुश अपने शरीर में तेलमर्दन आदि संस्कारोंको करता है, यही दोनोंकी प्रतिसेवना हैं । प्रतिसेवनाकुशील मूलगुणोंकी विराधना नहीं करता है किन्तु उत्तर गुणकी विराधना कभी करता है इसकी यही प्रतिसेवना है । यशील, निर्मन्थ और स्नातकके प्रतिसेवना नहीं होती है। ये पाँचों प्रकार के मुनि सब तीर्थंकरों के समयमें होते हैं । लिङ्गके दो भेद हैं- द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग । पाँचों प्रकारके मुनियों में भावलिङ्ग समान रूप से पाया जाता हैं । द्रव्यलिङ्गकी अपेक्षा उनमें निम्न प्रकार से भेद पाया जाता है। 'कोई असमर्थ मुनि शीतकाल आदिमें कम्बल आदि वस्त्रों को ग्रहण कर लेते हैं लेकिन उस वस्त्रको न धोते हैं और न फट जाने पर सीते हैं तथा कुछ समय बाद उसको छोड़ देते हैं । कोई मुनि शरीर में विकार उत्पन्न होने से छज्जाके कारण वस्त्रोंको ग्रहण कर लेते हैं।' इस प्रकारका व्याख्यान भगवती आराधना में अपवाद रूपसे बतलाया है। इसी आधारको मानकर कुछ लोग मुनियों में सचेलता ( वस्त्र पहिरना ) मानते हैं। लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं है। कभी किसी मुनिका वा धारण कर लेना तो केवल अपवाद है उत्सर्ग मार्ग तो अचेलकता ही है और वही साक्षात् मोक्षका कारण होती हैं। उपकरणकुशील मुनिकी अपेक्षा अपवाद मार्गका व्याख्यान किया गया है अर्थात् उपकरणकुशील मुनि कदाचित् अपवाद मार्ग पर चलते हैं । पुलके पीस, प और शुक्ल ये तीन लेश्याएँ होती हैं । अकुश और प्रतिसेवनाकुशी के छह लेश्यायें होती हैं ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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