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________________ ९।४६] नवम अध्याय ५०३ कोई जीव बहुत काल तक एकेन्द्रिय और विकलत्रय पर्यायों में जन्म लेनेके बाद पश्चान्द्रय हाकर काल लब्धि आदिकी महायतासे अपूबकरण आदि विशुद्ध परिणामांको प्राप्त कर पहिलेकी अपेक्षा कर्मोको अधिक निर्जरा करता है। वहीं जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर पहिलेसे असंख्यातगुणा निर्जराको करता है। वहीं जीव अप्रत्याख्यानावरण कपायका क्षयोपशम करके श्रावक होकर पहिलेने असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। वही जीव प्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम करके बिरत होकर पहिलसे असंख्यालगुणी निजरा करता है । वही जीव अनन्तानुबन्धी चार कपायोंका विसंयोजन (अनन्तानुवन्धी कषायको अप्रत्याख्यान आदि कषाय परिणत करना) करके पहिलसे असंख्याप्तगुणी निर्जरा करता हैं। वही जीव दर्शनमोहकी प्रकृतियोंको क्षय करनेकी इच्छा करता हुआ परिणामोंकी विशुद्धिको प्राप्त कर पहिलेसे अस्थातगुणो निर्जरा करता है। वही जीव जायिक सम्य दृष्टि होकर श्रेणी चढ़नेके अभिमुख होता हुआ चारित्र मोहका उपशम करके .पहिलम असंख्यातगुणी निर्जरा करता है । वही जोव सम्पूर्ण चारित्रमोहक, उपशम करनेक निमित्त मिलने पर उपशान्तकषाय नामको प्राप्त कर पहिल्स असंख्यातगणी निर्जरा करता है। वही जीव चारित्रमोहके क्षय करनेमें तत्पर होकर क्षयक नामको प्राप्त कर पहिल्स असल्यानगुणी मिर्जरा करता है । वही जीव सम्पूर्ण चारित्रमादको क्ष्य करनेवाले परिणामीको प्राप्तकर मार्गदर्शक :- अक्वाय अमीरोगाधिकार आरमशासारणी निर्जराको करता है। और वही जीव यातिथा काँका नाश करके जिन संज्ञाको प्राप्त कर पहिलने असंख्यातगुणी निर्जराका करता है । निग्रन्थोंक भेद--- पुलाकबकुशकुशीलानन्धम्नातका निर्ग्रन्थाः ।। ४६ ।। पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रन्थ और स्नातक थे साधुओंके पाँच भेद है। जो उत्तर गुणांकी भावनासे रहित हों तथा जिनके मल गणों में भी कभी कभी दोप लग जाता हो उनका पुलाक कहते हैं। पुलाकका अर्थ है मल साहिन तण्डुल। पुलाफके समान कुछ दोषसहित होनेसे मुनियोंको भी पुलाक कहने हैं। जो मूलगुणोंका निर्दोष पालन करते हैं लेकिन शरीर और उपकरणों की शोभा बहानेको इच्छा रखते हैं, और परिवार में माह रखते हैं, उनको वकुश कहत हैं। बकुशका अथ है शवल । चितकबरा ।। कुशील के दो भेद हैं--प्रतिसेवनाकुशोल और कषायकुशील । जो उपकरण तथा शरीर आदिले पूर्ण विरक्त न हों तथा जो मूल और उत्तर गुणोंका निदोष पालन करते हों लेकिन जिनके उत्तर गुणोंकी कभी कभी विराधना हो जाती हो उनको प्रतिसेवनाकुशील कहते हैं। अन्य कषायों का जीत लनेके कारण जिनके केवल संज्वलन कपायका ही उदय हो उनको कषायकुशील कहते हैं। जिस प्रकार जलमें लकड़ीकी रेखा प्रकट रहती है उसी प्रकार जिनके कर्मों का उदय अप्रकद हो और जिनको अन्तमुहूत में कयल ज्ञान उत्पन्न होने वाला हो उनको निग्रन्थ कहते हैं। घातिया काँका नाश करने वाल कवली भगवानको स्नातक कहते हैं । याप चारित्रके तारतम्यक कारण इनमें भेद पाया जाता है लेकिन नंगम आदि नय की अपेक्षासे इन पांचो प्रकारकं साधुओंको निर्घन्ध कहते है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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