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________________ मार्गदर्शक वा वाता- साविधिसागर जी महाराज, ९४० करनेवाले, श्रुतज्ञानोपयोगवाले, अर्थ व्यजन और योगकी संक्रान्ति रहित, क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनिके एकत्यवितर्क शुक्लध्यान होता है। एकत्यवितर्कभ्यानवाला मुनि उस अवस्थासे नीचेकी अवस्था में नहीं आता है। एकत्ववितक ध्यानके द्वारा जिसने धातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जिसके केवल ज्ञानरूपी सूर्यका उदय हो गया है एसे तीन लोकमें पूज्य तीर्थकर, सामान्यकेवली अथवा गणधर केवली उत्कृष्ठ कुछ कम एक पूर्वकोटी भूमण्डलमें बिहार करते हैं। जब अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रह जाती है और वेदनीय. नाम और गोत्र कर्मों की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त रहती है तब वे सम्पूर्ण मन और वचन योग तथा बादर काययोगको छोड़कर सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको करते हैं। और जब वेदनीय नाम और गोत्र कर्मकी स्थिति आयु कर्मसे अधिक होती है तब वे चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्रात के द्वारा आत्माके प्रदेशों को बाहर फैलाते हैं और पुनः चार समयों में आत्मा के प्रदेशोंको समेट कर अपने शरीरप्रमाण करते हैं। ऐसा करनेसे वेदनीय नाम और गोत्रकी स्थिति आयु कर्मके बराबर हो जाती है। इस प्रकार तीर्थकर आदि दण्ड कपाट आदि समुद्रात करके सूक्ष्मकाथ्योगके पालम्बनसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको करते हैं। इसके अनन्तर ज्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान होता है । इसका दूसरा नाम समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति भी हैं। इस ध्यान में प्राणापानक्रियाका तथा मन,वचन और काययोगके निमित्तसे होने वाले श्रात्मा के प्रदेश परिस्पंदनका सम्पूर्ण विनाश हो जानेसे इसको समुच्छन्नक्रियानिवर्ति कहते हैं। इस ध्यानको करनेवाला मुनि सम्पूर्ण आस्रव और बन्धका निरोध करता है। सम्पूर्ण ज्ञान, दशन और यथाख्यातचारित्र की प्राम करता है और ध्यान रूपी अग्निके द्वारा सर्व कम मलका नाश कर के निर्माणको प्रान करता है। सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और बुपरतक्रियानिवति ध्यानमें यद्यपि चिन्ताका निरोध नहीं है फिर भी उपचारसे उनको ध्यान कहते हैं। क्योंकि वहाँ भी अधातिया कर्मकि नाश करने के लिये योगनिरोध करना पड़ता है । यद्यपि केवलीके ध्यान करने योग्य कुछ भी नहीं है फिर भी उनका ध्यान अधिक स्थितिवाले फर्मोकी सम स्थिति करने के लिये होता है। ध्यानसे प्राप्त होने वाला निर्वाण सुख है । मोहनीय कर्म के क्षयसे सुख,दर्शनावरण के क्षयसे अनन्त दर्शन,शानावरण के क्षयसे अनन्तज्ञान, अन्तरायके सबसे अनन्तवीर्य, श्रायुके क्ष्यसे जन्म-मरणका नाश, नामके क्षयसे अमूर्तत्व, गोत्रके क्षयसे नीच ऊँच कुलका क्षय और वेदनीयके क्षयसे इन्द्रियजन्य अशुभका नाश होता है। पक इष्ट वस्तुमे जो स्थिर बुद्धि होती है उसको भ्यान कहते हैं। पारी, रौद्र और धर्म्य ध्यानोंकी अपेक्षा जो चन्चल मप्ति होती है उसको चित्त, भावना, अनुप्रेक्षा, चिन्तन, ख्यापन आदि कहते हैं। निर्जरामें न्यूनाधिकताका वर्णनसम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोरक्षपकोपशमकोपशान्तमोह क्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ।। ४५ ॥ सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक, दर्शनमोहका क्षय करने बाला, चारित्रमोहका उपशम करने वाला, उपशान्तमोहवाला, क्षपक-झीपमोह और जिनेन्द्र भगवान् इन सबके क्रमसे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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