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तत्त्वार्यकत्ति-प्रस्तावना है। मरके समान अन्य मात पर्वतोंमें भी देव रहते है ।
त्रयस्त्रिश स्वगलोक का विस्तार ८०००० योजन है । वहां चारों दिशाओंके बीच में वज्रपाणिदेव रहते हैं । यायस्त्रिशलोकके मध्यभागमें मुदर्शन नामका सुवर्णमय नगर है। इस नगरके मध्यम वैज
यन्त नामका इन्द्र का प्रासाद है। यह नगर बाह्य भाग चार उद्योनोंसे सुशोभित है। इन उद्यानोंकी चारों मार्गदर्शदशाओम शाजनक अरिलिसादेयाक कीडाला। पूर्वोत्तर दिग्भागमें पारिजात देवम है। दक्षिण
पश्चिम भागमें मुधर्मा नामकी देव सभा है। प्रायस्त्रिश लोकसे ऊपर याम, सुषित, निर्माणरति, और परनिर्मितवशवी देव विमानोंम रहते हैं। महाराजिक और त्रास्त्रिशदेव मनुष्योके समान कामसेवन करते हैं। याम आलिंगनरो, तुषित पाणिसंयोगसे, निर्माणरति हास्यमे और परनिर्मितवशवर्ती देव अवलोकनरो कामसूखका अनुभव करते हैं। कामधात्में देय पांच या दस वर्षके बालक जसे उत्पन्न होते हैं। रूपधातुमें पूर्ण दारीरधारी और वस्व सहित उत्पन्न होते हैं। ऋद्धिबल अथवा अन्य देवोंकी सहायताके बिना देव अपने ऊपर देवलोकको नहीं देख सकते।
जम्बूद्वीपवामी मनुष्योंका परिमाण (शरीरकी ऊँचाई) ३॥ या ४ हाथ है। पूर्वविदेहवासी मनुष्यों का परिणाम ७ या ८ हाथ है। गोदानीयवासियों का परिमाण १४ या १६ हाच है । और उत्तर करुवामी मनुष्योफा परिमाण २८ या ३२ हाथ है। चातुर्महाराजिक देवोंका परिमाण पावकोश त्रायरिंशदेवोंका आधाकोश, पामोंका पौनकोश, तुषितोंका एक कोश, निर्माणरतियोंका सवाकोश और परिनिर्मितवशवर्ती देवोंका परिमाण डेड कोश है।
उत्तरकुरुमें मनुष्योंकी आयु एक हजार वर्ष है। पूर्व विदेहमें ५०० वर्ष आयु है । गोदानीयमें २५० वर्ष आयु है। लेकिन जम्बू-दीपमें मनुष्योंकी आयु निश्चित नहीं है। कल्पके अन्तमें दस वर्ष की आयु रह जाती है। उत्तरकुरुमं आयुके बीच में मृत्यु नहीं होती है । अन्य पूर्वविदेह आदि द्वीपों में नथा देवलोक में बीच में मृत्यु होती है।
वैविक परम्परा योगदर्शन-व्यासभाष्यके आधारमे--
भुवन विन्यास-लोक सात होते हैं। प्रथम लोकका नाम भूलोक है। अन्तिम अवीचि नरकसे' लेकर मेरुपृष्ठ तक भूलोक है। द्वितीय लोक का नाम अन्तरिक्ष लोक है। मेरुपृष्ठसे लेकर धव तक अन्तरिक्ष लोक है। अन्तरिमलोकम ग्रह, नक्षत्र और तारा है। इसके ऊपर स्वर्लोक है। स्वलोकके भेद है-माहेन्द्रलोक, प्राजापत्यमहर्लोक, और ब्रह्मलोक आदि । ब्रह्मलोकके तीन भेद है-जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक | इस प्रकार स्वर्लोकके पांच भेद होते हैं।
अवीचिनरकसे ऊपर छह महानरक हैं । उनके नाम निम्न प्रकार है-महाकाल, अम्बरीष, रौरव, महारोरत्र, कालमूत्र और अन्धतामित्र। ये नरकः क्रमशः धन (शिलाशकल आदि पार्थिव पदार्थ), सलिल, अनल, अनिल, आकाश और तमके आधार (आश्रय) है। महानरकोंके अतिरिक्त कुम्भीपाक आदि अनन्त उपनरक भी हैं। इन नरकोंमें अपने अपने कर्मोंके अनुसार दीर्घायुनोले प्राणी उत्पन्न होकर दुःख भोगते है। अवीचिनरकसे नीचे सात पाताललोक है जिनके नाम निम्न प्रकार है-महातल, रसातल, अतल, सुतल, वितल, तलातल और पाताल ।
भूलोकका विस्तार-इस पृथ्वीपर सात द्वीप है। भूलोकके मध्यमें सुमेरु नामक स्वर्णमय पर्वतराज है जिसके शिखर रजत, बेदुर्य, स्फटिक, हेम और मणिमय है । सुमेरु पर्वतके दक्षिणपूर्वमें जम्बू नामका वृक्ष है जिसके कारण लवणोदधिसे वेष्टित द्वीपका नाम जम्बूद्वीप है। मूर्य निरन्तर मेरुकी प्रदक्षिणा करता रहता है। मेरुमे उत्तरदिशामें नील श्वेत और श्रृंगवान् ये तीन पर्वत है। प्रत्येक पर्वतका विस्तार दो हजार योजन है । इन पर्वतोंके बीचमें रमणक, हिरण्यमय और उत्तरकुरु ये तीन क्षेत्र है। प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ योजन है। नीलगिरि मेरुसे लगा हुआ है। नीलगिरिके उत्तरमें रमणक क्षेष है। श्वेत