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द्वितीय अध्याय
एक जीवके एक साथ कितने शरीर हो सकते हैं ।
तदादीन भाज्यानि युगपदेकस्याचतुर्भ्यः || ४३ ||
एक साथ एक जीवके कमसे कम दो और अधिक से अधिक चार शरीर हो सकते हैं। दो शरीर तेजस और कार्मण, नीन- तेजस, कार्मण और चदारिक अथवा तैजस, कार्मण और वैनयिक, चार- तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक । नहीं हो सकते, जिस संवतके आहारक शरीर होता है उसके और जिन देव नारकियोंके वैकियिक शरीर होता है उनके आहारक नहीं होता । कार्मण शरीरको विशेपत्ता - निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४४ ॥
एक साथ पाँच शरोर वैकियिक नहीं होता,
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अन्तका कार्मण शरीर उपभोग रहित है । इन्द्रियों के द्वारा शहादि विषयों के ग्रहण यही इच्छा नहाने से कार्मण शरीर उपभोग अ श्री सुविधिसागर रहित होता है। यद्यपि तेजस शरीर भी उपभोग रहित है लेकिन उनले योगनिमित्तकता न होने से स्वयं ही निरुपभोगत्व सिद्ध हो जाता है ।
दर्शक
हूँ ।
औदारक शरीरका स्वरूपगर्भसम्मूर्च्छन जमाद्यम् || ४५ ॥
गर्म और संमूर्च्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाले सभी शरीर औदारिक होते हैं ।
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वैकियिक शरीरका स्वरूप
औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥ ४६ ॥
उपपाद जन्मसे उत्पन्न होने वाले शरीर वैक्रियिक होते हैं ।
लब्धिप्रत्ययञ्च ॥ ४७ ॥
वैकियिक शरीर लब्धिजन्य भी होता है। विशेष तपसे उत्पन्न हुई ऋद्धिका नाम लब्धि है। लब्धिजन्य क्रियिक शरीर छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि होता है।
उत्तर वैककि शरीरका अन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
तीर्थंकरों के जन्म आदि कल्याणकोंके समय और नन्दीश्वर द्वीप आदिके चेत्यालयों की बन्दना के समय पुनः पुनः अन्त मुहूर्त के बाद नूतन नूनन चक्रियिक शरीरकी रचना कर लेने के कारण अधिक समय तक भी बेकिंथिकशरीरनिमित्तक कार्य होता रहता है। देवों को वैकिकि शरीरके घनाने में किसी प्रकार के दुःखका अनुभव न होकर सुखका ही अनुभव होता है ।
तेजसमपि ॥ ४८ ॥
तेजस शरीर भी लब्धिजन्य होता है ।
तेजस शरीर दो प्रकार है - निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक |
निःसरणात्मक — किनी उम्रचारित्र्वाले यतिको किसी निमित्तसे अति कोधित हो जाने पर उनके बायें कन्धे से बारह योजन लम्बा और नो योजन चौड़ा जलती हुई अग्नि के समान और काहलके आकार वाला तेजस शरीर बाहर निकलता हूं। और दाह्य वस्तुके पास जाकर उसको भस्मसात् कर देता है । पुनः यत्तिके शरीर में प्रवेश करके यतिको भी भस्म कर देता है। यह निःसरणामक तेजस शरीरका लक्षण है ।
४८.