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________________ नवम अध्याय संघरका लक्षण आस्रवनिरोधः संवरः ।। १ ।। आम्रवके निरोधको संघर कहते हैं। आत्मामें जिन कारणोंसे कर्म पाते हैं उन कारणोंको दूर कर देनेसे कर्मों का आगमन बन्द हो जाता है, यही संबर है । संवरके दो भेद -भावसंबर और व्यसंवर । अात्माक जिन परिमाणोंके द्वारा कर्माका श्रास्रव रुक जाता है उनको भावसंवर कहते है। और द्रव्य कर्मोका आस्रव नहीं होना द्रव्यसंवर है। मिश्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यादर्शनके द्वारा जिन सोलह प्रकृतिर्याका बन्ध होता है सासाद्न आदि गुणस्थानों में उन प्रकृतियोंका संघर होता है। वे सोलह प्रकृतियां निम्न प्रकार हैं। १ मिथ्यात्व २ नपुंसकवेद, ३ नरकायु ४ नरकगति ५-८ एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त चार जाप्ति ५ हुण्डकसंस्थान १० असंग्रामासृगाटिकासंहनन १५ नरकगतिप्रायोग्यानु पूर्व्य १२ आतप १३ स्थावर १४ सूक्ष्म १५ अपर्याप्तक और १६ साधारण शरीर। मार्गदर्शक :- आचनिन्मीनुसनधीसायके जाबहारजिन पच्चीस प्रकृतियोंका आस्रव दूसरे गुण स्थान तक होता है तीसरे श्रादि गुणस्थानों में उन प्रकृतियों का संबर होता है वे पच्चीस प्रकृतियाँ निम्न प्रकार हैं-१ निद्रानिद्रा २ प्रचलाप्रचला ३ स्त्यानगृद्धि ४-७ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ८ खीवेद ९ तिर्यञ्चायु १० तिर्यञ्चगति ११-१४ प्रथम और अन्तिम संस्थानको छोड़कर चार संस्थान १५-१८ प्रथम और अन्तिम संहननको छोड़कर चार संहनन १९ तियंगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य २० उद्यात २१ अप्रशस्तविहायोगति १२ दुभंग २३ दुास्थर २४ अनोदय आर २५ नीचगोत्र। अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे निम्न दश प्रकृतियोंका आस्रव चौथे गुणस्थान तक होता है और आगेके गुणस्थानों में उन प्रकृतियोंका संघर होता है। १४ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध. भान, माया, लोभ ५ मनुष्यायु ६ मनुष्यगति , औदारिक शरीराझोपाय ९ ववृषभनाराचसंहनन और १० मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूष्य । सम्मिथ्यात्व (मिश्र ) गुणस्थान में आयुका बन्ध नहीं होता है । प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयमे पाँच गुणस्थान तक प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभका आम्रव होता है। आगेके गुणस्थानों में इन प्रकृतियों का संबर होता है। प्रमादके निमित्तसे छठवें गुणस्थान तक निम्न छह प्रकृतियोंका आस्रव होता है और आगेके गुणस्थानों में उनका संवर होता है। १ असातावेदनीय २ अरति ३ शोक ४ अस्थिर ५ अशुभ और ६ अयशाकानि । देवायुके आस्रवका प्रारंभ छठवें गुणस्थानमें होता है लेकिन देवायुका आस्रव सातवें गुणस्थानमें भी होता है। आगेके गुणस्थानों में देवायुका संवर है। आठवे गुणस्थानमें तीन संचलन कषायके उदयसे निम्न छत्तीस प्रकृतियोंका आस्रव होता है और आगेके गुणस्थानों में उनका संवर होता है । आठवें गुणस्थानके प्रथम संख्यात भागों में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंका बन्ध होता है । पुनः संस्थान भागोंमें तीस प्रकृतियोंका बन्ध होता है। देवति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वंनिरिक, आहारक, तंजस, और कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, बैंक्रियिकशरीरापान, आहारकशरीरानो
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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