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४८० तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ It पार, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपृळ, अगुमलघु, उपघात, परपात, उच्छ्यास, प्रशस्तविहायोगति. नस, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण और तीर्थंकर प्रकृति | आठवें गुणस्थानके अन्त समयसे हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियोंका बन्ध होता है। इन प्रकृतियोंका आगेके भागों में और गुणस्थानों में संबर होता है।
दर्शकं:- आचार्य श्री सविधिसापरज
सज्वलन कपायउदयसे पाचप्रधांतका प्रथम संख्यात भागों में पुवेद और क्रोध संज्वलनका बन्ध होता है। पुनः संख्यात भागोंमें मान और माया संचलनका बन्ध होता है और अन्त समयमें लोभ संज्वलनका बन्ध होता है। इन प्रकृतियोंका अागेके भागों और गुणस्थानों में संबर होता है।
दश में गुणस्थानमें मन्द संचलन कषायके उदयसे निम्न सोलह प्रकृतियोंका बन्ध होता है और आगेके गुणस्थानों में उनका संघर होता है। पांच ज्ञानाधरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यश कीर्ति और उच्चगोत्र ये सोलह प्रकृतियां हैं। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें योग के निमित्त से एक ही सातावेदनीयका बन्ध होता है और चौदहवें गुणस्थानमें उसका संपर होता है।
गुणस्थानों का स्वरूप-- १ मिथ्यात्व-तत्त्वार्थका यथार्थ श्रद्धान न होकर विपरीत श्रद्धान होनेको मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान कहते हैं। दर्शनमोइनीयके तीन भेद हैं-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्न | इन तीनों के तथा अनन्तानुबन्धी चार कपार्योंके उदय न होनेपर औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । औपशमिक सम्यक्त्वका काल अन्तर्मुहूर्त है।
सासादन उपशम सम्यक्त्व के कालमें उत्कृष्ट छह आवली और जघन्य एक समय शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभमें से किसी एकके उदय हानेपर तथा और दूसरे मिथ्यादर्शनके कारणोंका उदयाभाव होनेपर सासादन गुणस्थान होता है। यद्यपि सासादनसम्यग्दृष्टि जीवक मिथ्यादर्शनका उदय नहीं होता है लेकिन अनन्तानुबन्धी कषायक उदयसे उसके मति आदि तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान ही हैं। क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय मिथ्यादशनको ही उत्पन्न करती हैं। जीव सासादन गुणस्थानको छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही आता है।
३ मिश्रगुणस्थान--इस गुणस्थानमें सम्यग्मिध्यान कर्म के उदय होनेसे उभयरूप ( सम्यक्त्व और मिथ्यात्व) परिणाम होते हैं जिनके कारण तत्त्वार्थों में जीव श्रद्धाम और अश्रद्धान दोनों करता है । सम्यग्मियाष्टिक तीन अज्ञान सत्यासत्यरूप होते हैं।
४ अविरत सम्यग्दृष्टि- इस गुणस्थानमें चारित्र मोहनीयके उदयसे सम्यष्टि जीव संयमका पालन करने में नितान्त असमर्थ होता है। अतः चौथे गुणस्थानका नाम अविरति
सम्यग्दृष्टि है।
५ देशविरत-इस गुणस्थानमें जीव श्रावकके व्रतोंका पालन करता है लेकिन प्रत्याख्यानावरण कपायके उदयसे मुनिके ब्रोका पालन नहीं कर सकता अतः इस गुणस्थानमें अप्रमत्त जीव भी अन्तर्मुहूर्त के लिये प्रमत्त ( प्रमादी) हो जाता है अतः छठवें गुणस्थानका नाम प्रमत्तसंयत है ।
प्रमत्तसंयत—इस गुणस्थानमें अप्रमत्त जीवभी अन्तर्मुहूर्त के लिए प्रमत्त (प्रमादी) हो जाता है अतः छठ गुणस्थानका नाम प्रमत्तसंयत है।
७ अप्रमत्तसंयत -इस गुणस्थानमें निद्रा आदि प्रमादका अभाव होनेसे सातर्षे गुणस्थानका नाम अप्रमत्त संयत है ।