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________________ ५१० नत्रांत हिन्दी-सार [ १६ आदि पूर्व देव आदि द्वारा किया गया अन्य मुनियोंका संहरण परकृत संहरण है। देव के कारण किसी मुनिको उठाकर समुद्र आदि में डाल देते हैं। इसीको संहरण या हरण करना कहते हैं। जिस क्षेत्र में जन्म लिया हो उसी क्षेत्र से सिद्ध होनेको जन्मसिद्ध कहते हैं । किसी दूसरे क्षेत्र में जन्म लेकर संहरण से अन्य क्षेत्र में सिद्ध होतेको संहरण सिद्ध कहते हैं । कालकी अपेक्षा नियनयसे जीव एक समय में सिद्ध होता है। व्यवहारजय से जन्मकी अपेक्षा सामान्य रूप से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणो कालमें उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है और विशेषरूप से अवसर्पिणी कालके तृतीय कालके अन्त में और चौथे कालमें उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है, और चौथे कालमें उत्पन्न हुआ जीव पांचवें कालमें सिद्ध होता है। लेकिन पाँचवें कालमें उत्पन्न हुआ जीव पाँचवें कालमें सिद्ध नहीं होता है। तथा अन्य कालों में उत्पन्न हुआ जीव भी सिख नहीं होता है। संहरणकी अपेक्षा सर्व उत्सर्पिणी और सर्पिणी कालमें सिद्धि होती है । गतिकी अपेक्षा सिद्धगति या मनुष्यगति में सिद्धि होती है। लिङ्गकी अपेक्षा निश्चयनयसे वेद के अभाव से सिद्धि होती हूँ। व्यवहारनयसे तीनों भाववेदोंसे सिद्धि होती है लेकिन द्रव्यवेदकी अपेक्षा पुंवेषसे ही सिद्धि होती है। अथवा निर्मन्थलिङ्ग या समन्थलिसे सिद्धि होती है ( भूतपूर्वनयको अपेक्षा ) । तीर्थकी अपेक्षा कोई तीर्थंकर होकर सिद्ध होते हैं और कोई सामान्य केवली शंकर सिद्ध होते हैं। सामान्य केवली भो या तो किसी तीर्थंकर के रहने पर सिद्ध होते हैं अथवा मार्गदर्शक के आधायते राज चारित्रको अपेक्षा यत्राख्यातचारित्र अथवा पांचों चारित्र सिद्धि होती है । कोई स्वयं संसार से विरक्त होकर ( प्रत्येकबुद्ध होकर ) सिद्ध होते हैं और कोई दूसरे के उपदेश विरक्त होकर (बोधितबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं । ज्ञानकी अपेक्षा निश्चय नयसे केवलज्ञान से सिद्धि होती है और व्यवहारयसे मति श्रुत आदि दो. तीन या चार ज्ञानों में भी सिद्धि होती है। इसका तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान होने से पहिले व्यक्ति दो तीन या चार ज्ञान हो सकते हैं ; शरीरको ऊँचाईको अवगाहना कहते हैं। अवगाहना के दो भेद है-- उत्कृष्ट और जन्य | सिद्ध होने वाले जीवोंकी उत्कृष्ट अवगाहना सवा पांच सौ धनुष है और जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ है। जो जी सोलहवें वर्ष में सात हाथ शरीर वाला होता है वह आठवें वर्ष में साढ़े तीन हाथ शरीर वाला होता है और उस जीवकी मुक्ति होती है। मध्यम अवगाहना अनन्त भेद हैं। यदि जीव लगातार सिद्ध होते रहें तो जघन्य दो समय और उत्कृष्ट आठ सययका अनन्तर होगा अर्थात् इतने समय तक सिद्ध होते रहेंगे । और यदि सिद्ध होने में व्यवधान पड़ेगा तो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मासका अन्तर होगा । संख्याको अपेक्षा जघन्यसे एक समय में एक जीव सिद्ध होसा है और उत्कृष्टमे एक समय में एक सौ आठ जीव सिद्ध होने हैं। क्षेत्र आदि में सिद्ध होनेवाले जीवोंकी परस्पर में कम और अधिक संख्याको अल्पagro neते हैं। क्षेत्र अपेक्षा अल्पबहुत्व - निश्चय नयकी अपेक्षा सब जीव सिद्ध क्षेत्र में सिद्ध होते हैं अतः उनमें अल्पबहुत्य नहीं है व्यवहार नयकी अपेक्षा उनमें अस्प F इस प्रकार है ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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