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________________ १०।७-९] इसवाँ अध्याय ५०१ जाने पर ऊपरको ही गमन करता है। अन्य जन्मके कारण गति, जाति आदि समस्त फर्मबन्धके नाश हो जामेसिखीय समारती अविहिवागमम जीयका स्वभाव अर्ध्वगमन करनेका बतलाया है अतः कर्मा के नष्ट हो जाने पर अपने स्वभावके अनुसार जीवका ऊर्मगमन होता है। ये ऊर्ध्वगमनके चार कारण हैं। उक्त चारों कारणों के चार दृष्टान्तश्राविकुलालचक्रवचपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजबदग्निशिखाबच्च ॥ ७॥ घुमाये गये कुम्हार के चक्केको तरह, लपरहित तूंबीकी तरह, एरण्ड के बीजकी तरह ओर अग्निको शिखाकी तरह जीव ऊर्धगमन करता है। जिस प्रकार कुम्हारके हाथ और दण्डेसे चाकको एक बार घुमा देने पर वह चाक पूर्वसंस्कारसे बराबर घूमता रहता है उसी प्रकार मुक्त जीव पूर्व संस्कारसे ऊर्ध्वगमन करता है। जिस प्रकार मिट्टोके लेपसहित तू बी जलमें डूब जाती है और लेपके दूर होने पर ऊपर आ जाती है उसी प्रकार कमलेपरहित जीव ऊर्ध्वगमन करता है। जिस प्रकार परण्ड (अण्ड) वृक्षका सूखा योज फलीके फटने पर ऊपरको जाता है उसी प्रकार मुक्त जीव कर्मबन्ध रहित होनेसे ऊर्ध्वगमन करता है । और जिस प्रकार बायु रहित स्थानमें अग्निकी शिखा स्वभावसे ऊपरको जाती है उसी प्रकार मुक्त जीय भी स्वभावसे ही अर्ध्वगमन करता है ! प्रश्न-सङ्ग और बन्ध में क्या भेद है ? उत्तर-परस्पर संयोग या संसर्ग हो जाना सा है और एक दूसरे में मिल जाना-एक रूपमें स्थिति बन्ध है। प्रश्न-यदि जीवका स्वभाव ऊर्ध्वगमन करनेका है तो लोकके बाहर अलोकाकाश में क्यों नहीं चला जाता ? उत्तर-धमास्तिकायका अभाव होनेसे जीय अलोकाकाशमें नहीं जाता है। धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ८ ॥ गमनका कारण धर्म द्रव्य है । और अलोकाकाशमें धर्म द्रव्यका अभाव है। अतः आगे धर्म द्रव्य न होनेसे जीव लोकके बाहर गमन नहीं करता है । जीवका स्वभाव ऊर्यगमन करनेका है अतः लोक में धर्मध्वके होने पर भी जीव अधोगमन या नियमामन नहीं करता है किन्तु ऊर्ध्वगमन ही करता है। मुक्त जीवोंमें भेदकं कारण-- क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्र प्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तर संख्याल्पयहुत्वतः साध्याः ।।९।। क्षेत्र, काल, गति, लिङ्ग,नीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध,बोधितयुद्ध, झान,अवगाहन, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगोंसे सिद्धों में भेद पाया जाता है। क्षेत्र आदिका भेद निश्चयनय और व्यवहारनयको अपेक्षासे किया जाना है। क्षेत्रकी अपेक्षा निश्चयमयी जीष आत्माके प्रदेशरूप क्षेत्रमें ही सिद्ध होता है और व्यवहारनयसे आकाशके प्रदेश में सिद्ध होता है। जन्मकी अपेक्षा पन्द्रह कर्म भूमियों में सिद्ध होता है और संहरणकी अपेक्षा मनुष्य लोकमें सिद्ध होता है । संहरण दो प्रकारसे होता है-विकृत और परकृत । चारण विद्याधरोंके स्वकृत साहरण होता है । तथा
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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