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________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार १०१४-६ प्रश्न- द्रव्यकर्म के नाश हो जाने पर द्रव्यकर्मके निमित्तसे होनेवाले भावोंका नाश भी स्वयं सिद्ध हो जाता है। अतः इस सूत्रको बनानेकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर - यह कोई नियम नहीं है कि निमित्त के न होने पर कार्य नहीं होता है । किन्तु निमित्त के अभाव में भी कार्य देखा जाता है जैसे दण्ड, चक्र आदिके न होने पर भी घट देखा जाता है | अतः द्रव्यकर्मक नाश हो जाने पर भावकर्मीका नाश भी हो जाता है। इस बात की स्पष्ट करने के लिये उक्त सूत्र बनाया है । मोक्षमें क्षायिक भावका क्षय नहीं होता है-अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ॥ २०८ ४ ॥ इन चार भावका मोक्ष में केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्ध क्षय नहीं होता है । प्रश्न- तो फिर मोक्ष अनन्तवीर्य, अनन्तसुख आदिका क्षय हो जायगा । उत्तर - अनन्तषीर्य, अनन्तसुख आदिका अन्तर्भाष ज्ञान और दर्शनमें ही हो जाता हैं । अनन्तवीर्य आदि रहित जीवके केवलज्ञान आदि नहीं हो सकते हैं। अतः केवलate आदि सहायसे अनन्तवीर्य आदिका भी सद्भाव सिद्ध है । मार्गदर्शन -- शिरोवर क्यों नहीं हो जायगा ? उत्तर- सिद्धों की आत्मा के प्रदेश चरमशरीर के आकार होते हैं अतः उनका प्रभाव कहना ठीक नहीं है। प्रश्न – कर्मसहित जीवके । प्रदेश शरीरके आकार होते हैं । श्रतः शरीरका नाश हो जाने पर जोके असंख्यात प्रदेशोंको लोक भर में फैल जाना चाहिये । उत्तर - नोकर्मका सम्बन्ध होने पर जीवके प्रदेशों में संहरण और विसर्पण होता है और नोर्मका नाश हो जाने पर उनका संहरण-विसर्पण नहीं होता है । प्रश्न- तो जिस प्रकार कारणकै न रहने पर प्रदेशों में संहरण और विसर्पण नहीं होता है उसी प्रकार ऊर्ध्वगमनका कारण न रहने पर मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन भी नहीं होगा। अतः जीव जहां मुक्त हुआ है वहीं रहेगा । उत्तर---मुक्त होनेके बाद जीवका ऊर्ध्वगमन होता है। ऊर्ध्वगमनके कारण आगे बतलाये जायगे । तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्या लोकान्तात् ॥ ५ ॥ कर्मों के क्षय हो जाने के बाद जीष लोकके अन्तिम भाग तक ऊपरको जाता है और वहाँ जाकर सिद्ध शिलापर ठहर जाता है । ऊर्ध्वगमनके कारण — पूर्व प्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदातथागतिपरिणामाच्च ||६॥ पूर्वके संस्कारसे, कर्मके सङ्गरहित हो जानेसे, अन्धका नाश हो जानेसे और ऊर्ध्वमनका स्वभाव होनेसे मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है । संसारी जीवने मुक्त होने से पहिले कई बार मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया है । अतः पूर्वका संस्कार रहने से जीव ऊर्ध्वगमन करता है। जीव जब तक कर्मभारसहित रहता है तब तक संसार में बिना किसी नियमके गमन करता है और कर्मभारसे रहित हो
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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