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________________ प्रस्तुतविर्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिधसागर औं म्हाराज कोक सक ५ राजू और लोकान्तवर्ती बादरजलकाय या वनस्पतिकायमें उत्पन्न होने के कारण ७ राज, प्रकार १२ राजू हो जाते हैं। कुछ प्रदेश सासादनके स्पर्शयोग्य नहीं होते अतः देशोन समझ लेना चाहिए। - इस प्रकार समस्त सूत्रमें सर्वार्थसिद्धिके अभिप्रायको खोलनेका पूर्ण प्रयत्ल किया गया है । न केवल सौ सूपको ही, किन्तु समग्र ग्रन्थ को ही लगानेका विद्वत्तापूर्ण प्रयास किया गया है। परन्तु शास्त्रसमुद्र इसना अगाध और विविध भंग सरंगोंसे युक्त है कि उसमें कितना भी कुशल अबगाहक वीन हो चस्करमें आ ही जाता है। इसीलिए बड़े बड़े आचार्योन अपने छयस्थशान और चंचल क्षायोमिक उपयोग पर विश्वास न करके स्वयं लिख दिया है कि-"को न विमुहह्मति शास्त्रसमा ।" अवसागरसूरि भी इसके अपवाद नहीं है। यथा" (१) सर्वार्थ सिद्धिमें "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" (५॥४१) सूत्रकी व्याख्या निर्गुण' इस विशेषण की सार्थकता बताते हुए लिखा है कि-"निर्गुण इति विशेषणं पणुकादिनिवृत्त्यर्थम्, तान्यपि हि कारण1. परमानद्रव्यानयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् “निर्गुणाः' इति विशेषणात्तानि नियतितानि भवन्ति ।" उपगुकादि स्कन्ध नैयायिकों की दृष्टिसे परमाणुरूप कारणद्रव्यमें आश्रित होनेसे द्रव्याश्रित है और रूपादि गुगवाले होनेसे गुणवाले भी है अतः इनमें भी उक्त गुणका लक्षण अतिव्याप्त हो जायगा । इसलिए इनकी निवृत्ति के लिए 'निर्गुणाः' यह विशेषण दिया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरमूरि - "निर्गुणाः इति विशेषणं उधणुकश्मणुकादिस्कन्धनिषेधार्थम्, तेन स्कन्धाश्रया गुणा' गुणा नोख्यन्ते ।. ..कामात ? कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयत्वात्, तस्मात् कारणात् निर्गुणा इति विशेषणात् स्कन्धगुणा गुणा न मन्ति पर्यायाश्रयत्वात् । अर्थात्-'निर्गुणाः' यह विशेषण घणुक श्यणुकादि स्कन्धके. निषेषके लिए है। ले स्कन्धमें रहनेवाले गण गुण नहीं कहे जा सकते क्योंकि वे कारणभूत परमाणुद्रव्यमें रहते हैं । इसलिए स्कन्धके गुण गुण नहीं हो सकते क्योंकि वे पर्यायमें रहते हैं। यह हेतुवाद बड़ा विचित्र है और जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल भी । जनसिद्धान्तमें रूपादि चाहे घटादिस्कन्धोंमें रहनेवाले हों या परमाणुमें, सभी गुण 7.कडे जाते । ये स्कन्धके गणोको गण ही नहीं कहना चाहते क्योंकि वे पर्यायाधित है। यदि वे यह कहते कारमपरमाणुओंको छोड़कर स्कन्धको स्वतंत्र सत्ता नहीं है और इसलिए स्कन्धाश्रित गुण स्वतंत्र नाही है तो कदाचित् संगत भी था। पर इस कथनका प्रकृत निर्गुण' पदकी सार्थकतासे कोई मेल नहीं बैठता । असंगतिके कारण आगेके शंकासमाधानमें भी असंगति हो गई है। यथा-सर्वार्थसिद्धि में है किकी संस्थान-आकार आदि पर्याएँ भी द्रश्याश्रित है और स्वयं गुणरहित हैं अतः उन्हें भी गुण कहना चाहिए । इसका समाधान मह कर दिया गया है कि जो हमेशा द्रव्याश्रित हों, रूपादि गुण सदा द्रन्याश्रित रहते है। अब कि यटके संस्थानादि सदा द्रव्याश्रित नहीं हैं। इस शंका-समाधानका सर्वार्थसिसिका पाठ यह है "ननु पर्याया अपि घटसंस्थानादयो द्रव्याश्रया निर्गुणाश्च, तेषामपि गुणत्वं प्राप्नोति । द्रव्याश्रया पति वचनान्नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते, गुणा इति विशेषणात् पर्यायाश्च नितिता भवन्ति, ते हि कदाचिका इति ।" इस शंकासमाधानको श्रुतसागर सरि इस रूपम उपस्थित करते हैं "मनु घटादिपर्यायाश्रिताः संस्थानादयो ये गुणा वर्तन्ले, तेषामपि संस्थानादीनां गुणत्वमास्कन्दति । म्याश्रयत्वात्, यतो घटपटादयोऽपि द्रव्याणीत्युच्यन्ते । साध्वभाणि भवता । ये नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते त एवं गुणा भवन्ति न तु पर्यायाश्रया गुणा भवन्ति, पर्यायाश्रिता गुणाः कदाचित्काः कदाचिद्भवा बर्तन्ते इति ।" इस अवतरणमें श्रुतसागरसूरि संस्थानादिको घटादिका गुण कह रहे हैं, और उनका कादाविक होनेका लेख है फिर भी उसका अन्यथा अर्थ किया गया है। (२) सर्वार्थसिद्धि (८१२)में जीव शब्दकी सार्थकता बताते हुए लिखा कि “अमूर्तिरहस्त आत्मा कर्मादसे ? इति चोदितः सन् जीव इत्याह । जीवनाजीवः प्राणधारणादायुःसम्बन्धात् नायुविरहा
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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