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________________ ९६ तत्वार्थ चन्ति प्रस्तावना दिति ।" अर्थात्- 'हाथरहित अमूर्त आत्मा कैसे कर्म ग्रहण करता है' इस शंका का उत्तर है 'जीव' पदका ब्रहण । प्राणधारण और आयुःसंबंध के कारण जीव बना हुआ आस्मा कर्म ग्रहण करता है, आयुसम्बन्धसे रहित होकर सिद्ध अवस्थामें नहीं। यहां श्रुतसागरसूरि 'नायुविरहात्' वाले अंशको इस रूपमें लिखते हैं"आयुः सम्बन्धविरहे जीवस्यानाहारकत्वात् एकद्वित्रिसमयपर्यन्तं कर्म नादसे जीवः एक द्वौ त्रीन वाऽनाहारक इति वचनात् ।" अर्थात् - आयुसम्बन्धके बिना जीव अनाहारक रहता है और बहू एक दो तीन समय तक कर्मको ग्रहण नहीं करता क्योंकि एक दो तीन समय तक अनाहारक रहता हूं ऐसा कथन है । यहां कर्मग्रहणकी बात हूं, पर श्रुतसागरसूरि उसे नोकर्म ग्रहणरूप आहारमें लगा रहे हैं, जिसका कि आयुसम्बन्धविरहसे कोई मेल नहीं है । संसार अवस्थामें कभी भी जीव आयुसंबंधसे शून्य नहीं होता । विग्रहगतिमें भी उसके आयुसंबंध होता ही है । (३) सर्वार्थसिद्धि (८१२ ) में ही 'स' वाक्वकी सार्थकता इसलिए बताई गई है कि इससे गुणगुणिबन्धकी निवृत्ति हो जाती हैं । न्यायिकादि शुभ अशुभ क्रियाओंसे आत्मामें ही 'अनुष्ट' नाम के गुणकी उत्पत्ति मानते हैं उसीसे आगे फल मिलता है। इसे ही बन्ध कहते हैं। दूसरे शब्दो यही गुणगुणिबन्ध कहमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज लाता है। आत्मा गुणीमें अदृष्ट नामके उसीके गुणका सम्बन्ध हो गया। इसका व्याख्यान श्रुतसागरसुरि इस प्रकार करते हैं "तेन गुणगुणिबन्धो न भवति । यस्मिशेष प्रदेशे जीवस्तिष्ठति तस्मिन्नेव प्रदेशे केवलज्ञानादिकं न भवति किंतु अपरत्रापि प्रसरति ।" अर्थात् - इसलिए गुणगुणिबन्ध - गुणका गुणिके प्रदेशों तक सीमत रहना नहीं होता । जिस प्रदेशमें जीव है उसी प्रदेशमें ही केवल जानादि नहीं रहते किन्तु वह अन्यत्र भी फैलता हुँ । यहां गुणगुणिबन्धका अनोखा ही अर्थ किया है, और यह दिखाने का प्रयत्न किया है। कि गुणी चाहे अल्पदेशोंमें रहे पर गुण उसके साथ बद्ध नहीं है वह अन्यत्र भी जा सकता है। जो स्पष्ट तः सिद्धांतसमर्थित नहीं है । (४) पृ० २७० १० ११ में एकेन्द्रियके भी असंप्राप्तापटिका संहननका विधान किया है । (५) पु० २७५ में सर्व मूलप्रकृतियों के अनुभागको स्वमुखसे विपाक मानकर भी मतिज्ञानावरणका मतिज्ञानावरणरूप से ही विपाक होता है' यह उत्तरप्रकृतिका दृष्टान्त उपस्थित किया गया है । (६) पृ० २८१ में गुणस्थानों का वर्णन करते समय लिखा है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पहुँचनेवाला जीव प्रथमप्रथमोपशम सम्यक्त्वमें ही दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्ध चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम करता है, जो सिद्धान्तविरुद्ध है क्योंकि प्रथमोशमसम्यकृत्व में दर्शनमोहनीम की केवल एक प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी चार इस तरह पांच प्रकृतियोंके उपदाम से ही प्रथमोशन सम्यक्त्व बताया गया है । सातका उपशम तो जिनके एकबार सभ्य कुत्व हो चुकता है उन जीवक दुबारा प्रथमोशम के समय होता है । (७) आदाननिक्षेपसमितिमें-- मयूरपिच्छ के अभाव में वस्त्रादिके द्वारा प्रतिलेखनका विधान किया गया है, यह दिगम्बर परम्पराके अनुकूल नहीं है । (८) सूत्र ८०४७ में जन्यलिंगकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरिने असमर्थ मुनियोंको अपवादरूपसे वस्त्रादिग्रहण इन शब्दों में स्वीकार किया है- "केचिदसमथ महर्षयः शीतकालादो कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति न तत् प्रक्षालयन्ति, न तत् सीव्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितस्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यान माराधना भगवतीप्रोक्ताभिप्रायेण अपवादरूपं ज्ञातव्यम् । 'उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिर्बलवान्' इत्युत्सर्गेण तावद् यथोक्तमाचेलक्ष्यं प्रोक्तमस्ति, आय समर्थदोषवच्छरीराद्यपेक्षया अपवादव्याख्याने न दोषः ।"
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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