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अन्यकार
अधिक्ति पारीरवाले साधु शीतकाल
वस्त्र ले लेते हैं, पर वे न तो उसे घोते हैं न सीते हैं और न उसके लिए प्रयत्न ही करते हैं, दूसरे समय में उसे छोड़ देते हैं । उत्सर्गलिंग तो अचेलकता है पर आर्या असमर्थ और दोषयुक्त शरीरवालोंकी अपेक्षा अपवादगिमें भी दोष नहीं है ।
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९.७
भगवती आराधना (गा० ४२१ ) की अपराजितसूरिकृत विजयोदया टीकामें कारणापेक्ष यह अपवादमार्ग स्वीकार किया गया है। इसका कारण स्पष्ट है कि अपराजितसूरि मापनीय संघ के आचार्य थे और यापनीय आगमवासनाओं को प्रमाण मानते थे । उन आगमोंमें आए हुए उल्लेखोंके समन्वय के लिए अपराजितमूरिने यह व्यवस्था स्वीकार की है। परन्तु श्रुतसागरसूरि तो कट्टर दिगम्बर थे, वे कैसे इस चक्कर आ गये ?
भाषा मीर - तत्त्वार्थवृत्तिकी शैली सरल और सुबोध है। प्रत्येक स्थान में नूतन पर मुमिल शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। सैद्धान्तिक बातों का खुलासा और दर्शनगुत्थियोंके सुलझानेका प्रयत्न स्थान स्थान पर किया गया है । भाषाके ऊपर तो श्रुतसागरसूरिका अद्भुत अधिकार है । जो क्रिया एक जगह प्रयुक्त है वहीं दूसरे वाक्यमें नहीं मिल सकती। प्रमाणोंको उद्धृत करनेमें तो इनके श्रुतसागरत्वका पूरा पूरा परिचय मिल जाता है। इस वृत्ति में निम्नलिखित ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका उल्लेख नाम लेकर किया गया है। अनिर्दिष्टकतु के गाथाएं और श्लोक भी इस वृत्तिमें पर्याप्त रूपमें संगीत हैं। इस वृत्तिमें उमास्वामी ( उमास्वाति भी) समन्तभद्र पूज्यपाद अकलंकदेव विधानन्दि प्रभाचन्द्र मिन्द्रदेव योगीन्द्रदेव मतिसागर देवेन्द्रकीर्तिमट्टारक आदि ग्रन्थकारोंके तथा सर्वार्थसिद्धि राजवातिक अष्टसहस्री भगवती आराधना संस्कृतमहापुराणपंजिका प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थोंक नामोल्लेख है। इनके अतिरिक्त सोमदेवके यशस्तिलकचम्पू आशाघरके प्रतिष्ठापाठ वसुनन्दिश्रावकाचार आत्मानुशासन आदिपुराण त्रिलोकसार पंचास्तिकाय प्रवचनसार नियमसार पंचसंग्रह प्रमेयकमल मार्तण्ड बारसअणुवेक्खा परमात्मप्रकाश आराधनासार गोम्मटसार बृह॒त्स्वयंभूस्तोत्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्रुतभक्ति पुरुषार्थसिद्धयुपाय नीतिसार द्रव्यसंग्रह कातन्त्रसूत्र सिद्धभक्ति हरिवंशपुराण षड्दर्शनसमुच्चय पाणिनिसूत्र इष्टोपदेश न्याय संग्रह ज्ञानार्णव अष्टांगहृदय द्वात्रिंशद्द्वात्रिंशतिका शाकटायनव्याकरण तस्त्वसार सागारधर्मामृत आदि ग्रंथोके इलोक गाथा आदि उद्धृत किये गये हैं ।
इस प्रकार यह वृत्ति अतिशयपाण्डित्यपूर्ण और प्रमाणसंज्ञा है । श्रुतसागरसूरिने इसे सर्वोपयोगी वैनानंका पूरा पूरा प्रयत्म किया है।
अन्धकार
अवसरप्राप्त
इस विभाग सूत्रकार उमास्वामी और वृत्तिकारके समय आदिका परिचय कराना हैं । सूत्रकार उमास्वामी के संबंध में अनेक विवाद है-- वे किस आम्नायके थे ? क्या तत्त्वार्थभाष्य के अन्तमें पाई जानेवाली प्रशस्ति उनकी लिखी है ? क्या तत्त्वार्थ भाष्य स्वोपज्ञ नहीं है? मूल सूत्रपाठ कौन हैं ? ये कब हुए थे ? आदि। इस संबंध में श्रीमान् पं० सुखलालजीने अपने तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना में पर्याप्त विवेचन किया है और उमास्वामीको देवे परम्पराका बताया है, तत्त्वार्थभाष्य स्वोपक्ष है और उसकी प्रशस्तिमें सन्देह करनेका कोई कारण नहीं है। इनने उमास्वामी के समयको अवधि विक्रमकी दूसरीसे पांचवीं सदी तक निर्धारित की है।
श्री पं० नाथुरामजी प्रेमीने भारतीय विद्याके सिंघी स्मृति अंक में "उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र और उनका सम्प्रदाय" शीर्षक लेखमें उमास्वातिको यापनीय संघका आचार्य सिद्ध किया है। इसके प्रमाणमें उनने मैसूरके नगरतालुके ४६ नं०के शिलालेखमें आया हुआ यह श्लोक उद्धृत किया है