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तार्थवृति प्रस्तावना
हम तो एक महानि के के अंश है और उसके परिचलन अनुसार प्रतिक्षण चल रहे हैं। यदि हिंसा करते हैं तो नियति है, व्यभिचार करते हैं तो नियत है, चोरी करते हैं तो नियति है, पापचिन्ता करते हैं तो नियति | हमारा पुवा कहाँ होगा? कोई भी क्षण इस नियतिभूतकी मौजूदगी से रहित नहीं है, जब हम सांस लेकर कुछ अपना भविष्य निर्माण कर सकें।
भविष्य निर्माण कहाँ ? दस नियतिवाद में भविष्य निर्माणकी सारी योजनाएँ हवा है। जिसे हम भविष्य कहते हैं वह भी नियतिचक्रमें सुनिश्चित है और होगा ही । जैन दृष्टि तो यह कहती है कि तुम में उपादान योग्यता प्रति समय अच्छे और बुरे बननेकी सत् और असत् होनेकी है, जैसा पुरुषार्थ करोगे, जंगवश जुटाये आसा निर्माण स्वयं कर सकोगे ।" पर जब नियतिचक निर्माण करनेकी बात पर ही कुठाराघात करके उसे नियत या सुनिश्चित कहता है तब हम क्या पुरुषार्थ करें? हमारा हमारे ही परिणमनपर अधिकार नहीं है क्योंकि वह नियत है। पुरषायेभ्रष्टताका इससे व्यापक उपवेद दूसरा नहीं हो सकता। इस नियतिक्रमें सबका सब कुछ नियत है उसमें अच्छा क्या ? बुरा क्या ? हिसा अहिंसा क्या ?
सबसे बड़ा अस्त्र सर्वशरण नियतिवादी वा तथोक्त अध्यात्मवादियोंका सबसे बड़ा तर्क है कि'सर्वज्ञ है या नहीं? यदि सर्वज्ञ हैं तो वह त्रिकालज्ञ होगा अर्थात् भविष्यज्ञ भी होगा । फलत: वह प्रत्येक पदार्थका अनन्तकाल तक प्रतिक्षण जो होना है उसे ठीक रूपमें जानता है। इस तरह प्रत्येक परमाणुकी प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है उनका परस्पर जो निमित्तनैमित्तिकजाल है वह भी उसके जानके बाहिर नहीं है। सर्वज्ञ माननेका दूसरा अर्थ है नियतिवादी होना । पर आज जो सर्वज्ञ नहीं मानतें उनके सामने हम नियतितन्त्रको कैसे सिद्ध कर मकते है ? जिस अध्यात्मवादके मूलमें हम नियतिवादको पनपाते है उस अध्यात्मदृष्टिने सर्वज्ञता व्यवहारनयको अपेक्षा है। निश्चयसे तो आत्मतामें ही उसका पर्यवसान होता है, जैसा कि स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसार (गा. १५८) में लिखा है---
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"जागदि परमदि सध्वं व्यवहारणएग केवली भगवं ।
केवलाणी जागव पस्सदि पियमेण वपाणं ।।"
अर्थात् केवली भगवान् व्यवहारजयमे सर्व पदार्थको जानते देखते हैं । निश्चयसे केवलज्ञानी अपनी आत्मा को ही जानता देखता है ।
अध्यात्मशास्त्रगत निश्चयको भूतार्थदा और परमार्थता तथा व्यवहारनयकी अभूतार्थता और परमाता पर विचार करने को अध्यात्मशास्त्रमें पुर्णज्ञानका पर्यवसान अन्ततः आत्मज्ञानमें ही होता अतः सर्वज्ञत्वकी दलीला अध्यात्मचिन्तनमूलक पदार्थमवस्थायें उपयोग करना उचित नहीं है ।
समग्र और अप्रतिम कारण ही हेतु अकलंक देवने उस कारण को हेतु स्वीकार किया है जिसके द्वितीयक्षणमं नियमसे कार्य उत्पन्न हो जाय। उसमें भी यह शर्त है कि जब उसकी शक्ति में कोई प्रतिबन्ध उपस्थित न हो तथा सामग्रयन्तगत अन्य कारणांकी विकलता न हो। जैसे अग्नि धूमकी उत्पत्ति में अनुकूल कारण है पर यह तभी कारण हो सकती है जब इसकी दशक्ति किसी मन्त्र आदि प्रतिबन्धकने न रोकी होगा भूमा सामग्री-जीला ईवन आदि पूरे रूपमे विद्यमान हो। यदि कारणका अमुक कार्यरूपमें परिणमन नियत हो तो प्रत्येक कारण को हेतु बनाया जा सकता था पर कारण तबतक कार्य उत्पन्न नहीं कर सकता जबतक उसकी सामग्री पूर्ण न हो और शक्ति अप्रतिबद्ध न हो । इसका स्पष्ट अर्थ है कि शक्तिकी अप्रतिबद्धता और सामग्री की पुर्णना जबतक नहीं होगी तबतक अमुक अनुकूल भी कारण अपना अमुक परिणमन नहीं कर सकता । अग्निमें यदि गीला ईधन डाला जाय तो ही धूम उपन्न होगा अन्यथा वह धीरे राख बन जायगी । यह बिल्कुल निश्चित नहीं है कि उसे उस समय राख बनना ही है या धूम पैदा करता ही है। यह तो अनुकूल सामग्री जुटाने की बात है। वहीं परिणमन उसका होगा ।
जिस परिणमनकी सामग्री जोगी