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तत्वार्थसि हिन्दी - सार
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भाषारूप और अभाषारूप | भाषारूप शब्द के भी दो भेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अक्षरात्मक शब्द संस्कृत और असंस्कृत के भेद से आर्य और म्लेच्छोंके व्यवहारका हेतु होता है। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय जीवों में ज्ञानातिशयको प्रतिपादन करनेवाला अनक्षरात्मक शब्द है। एकेन्द्रियादिकी अपेक्षा दो इन्द्रिय आदिमें ज्ञानातिशय है। एकेन्द्रिय में तो ज्ञानमात्र है । अतिशय ज्ञानवाले सर्व शके द्वारा एकेन्द्रियादिका स्वरूप बताया जाता है ।
मार्गवश कोई लोग सर्वच दो जाते है लेकिन उनका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अनक्षरात्मक शब्द अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता । सय भाषात्मक शब्द पुरुषकृत होनेसे प्रायोगिक होते हैं ।
अभापात्मक शब्द के दो भेद हैं- प्रायोगिक और वैस्रमिक | प्रायोगिकके चार भेद हैं - तत, वितत, घन और सुपिर । चमड़े के तानने से पुष्कर, भेरी, दुन्दुभि आदि बाजसे उत्पन्न होने वाले शव्दको तल कहते हैं। तन्त्रीके कारण वीणा आदिसे होनेवाला शब्द वितत है | किन्नरोंके द्वारा कहा गया शब्द भी वितत है। घण्टा, वाल आदि उत्पन्न होने वाला शब्द न है । बास, शंख आादिसे उत्पन्न होनेवाला शब्द सुषिर है। मेघ, विद्युत् आदिले उत्पन्न होनेवाला शब्द बेसिक है ।
बन्धके दो भेद हैं- प्रायोगिक और वैखसिक । पुरुषकृत बन्धको प्रायोगिक कहते हैं । इसके दो भेद हैं- अजीवविषयक और जीवाजीव विषयक | लाख और काष्ठ आदिका सम्बन्ध अजीवविषयक प्रायोगिक बन्ध है। जीवके साथ कर्म और नोकर्मका बन्ध जीवाजीवविषयक प्रायोगिक बन्ध है । पुरुषकी अपेक्षा के बिना स्वभावसे ही होनेवाले बन्धको वैrसिक बन्ध कहते हैं। रूक्ष और स्निग्ध गुणके निमित्तसे विद्युत्, जलधारा, अग्नि, इन्द्रधनुष आदिका बन्धक है ।
सौदम्य के दो भेद हैं- अन्त्य और आपेक्षिक | परमाणुओं में अन्त्य सौम्य है । वेल, आँवला, बेर आदिमें आपेक्षिक सौम्य है । बेलकी अपेक्षा आँवला सूक्ष्म है और आँवलेकी अपेक्षा र सूक्ष्म है |
स्थौल्य के भी दो भेद हैं--अन्त्य और आपेक्षिक | अन्त्य स्थौल्य संसारव्यापी मास्कन्ध में है। बेर, आँवला, बेल आदि आपेक्षिक स्थौल्य है। बेरकी अपेक्षा आँवला स्थूल है और आंवले की अपेक्षा बेल स्थूल है ।
संस्थान के दो भेद है-इत्थंलक्षण और अनित्थंलक्षण । जिस आकारका अमुकरूपमें निरूपण किया जा सके वह इत्थंलक्षण संस्थान है जैसे गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण आदि । और जिस आकार के विषय में कुछ कहा न जा सके वह अनित्थंलक्षण संस्थान है जैसे मेव, इन्द्रधनुष आदिका आकार अनेक प्रकारका होता है ।
भेद छह प्रकारका है—उत्कर, चूर्ण, खण्ड, प्रतर और अणुचटन। करोत कुल्हाड़ी दिसे लकड़ी दिके काटनेको उत्कर कहते हैं। जौ, गेहूँ आदिको पीसकर सतुआ आदि बनाना चूर्ण है । घटका फूट जाना खण्ड है। उड़द, मूँग आदिको दलकर दाल बनाना चूर्णिका है। मेघपटलका विघटन हो जाना प्रतर हैं। संतप्त लोहे के गोले को घनसे कूटने पर जो आके कण निकलते हैं वह अणुचटन है ।
प्रकाशका विरोधी अन्धकार पुद्गलकी पर्याय है ।
प्रकाश और आवरणके निमित्तसे छाया होती है। इसके दो भेव हैं--वर्णादिविकारात्मक और प्रतिविम्वात्मक | गौरवको छोड़कर श्यामवर्ण रूप हो जाना वर्णादि