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________________ तस्वार्थवनि-प्रत्तावना जनोऽयमन्यस्य स्वर्ष पुरातनः पुरातनरेन समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोषयेत् ।। आज जिरो हम नयीन कहकर उड़ा देना चाहते है वही व्यक्ति मरनेके बाद नई पीढ़ी के लिए पुराना हो जायगा और पुगतनोंकी गिनतीम शामिल हो जायगा । प्राचीनता अस्थिर है। जिन्हें आज हम पुगना कहते हैं ये भी अपने जमाने में नए रहे होंगे और जो उस समय नवीन कहकर दुरदुराये जाते मार्गदर्शक :ोंगअपेचव आ सुविधासागहमा पहाराजतरह प्राचीनता और पुरातनता जत्र कालकृत है और कालचके परिवर्तनके अनमार प्रत्येक नवीन पुरातनोंकी राशिमें सम्मिलित होना जाता है तब कोई भी विचार बिना परीक्षा किये इस गड़बड़ पूरातनताके नामपर कैसे स्वीकार किया जा सकता है? विनिश्चयं नैति यथा यघालसस्तथा तथा निश्चितवस्प्रसीदति । अवयवाक्या गरयोगमल्पपीरिति व्यवस्यन् स्वयमाय धावति ।। प्राचीनताम्ह आलसी जड़ निर्णयकी अशक्ति होने के कारण अपने अनिर्णम ही निर्णयका भान करके प्रसन्न होता है। उसके तो यही अस्त्र है कि 'अवश्य ही इसमें कुछ तत्व होगा? हमारे पुराने गुरु अमोघवचन थे, उनके वाक्य मिथ्या हो नहीं सकते, हमारी ही बद्धि अस्प है जो उनके वचनों तक नहीं पहुँचती' आदि। इन गिद्धावन आलशी पुरणप्रेमियोंकी ये सद बुद्धिहत्यावं मीचे प्रयत्न हैं और इनके द्वारा ये आत्मविनाशकी ओर ही तेजीसे बढ़ रहे हैं। मनुष्यवृत्तानि मनुष्यलक्षण मनुष्यहेतोनियतानि खैः स्वयम् । अलभपाराण्यलसेषु कर्णधानगाधपाराणि कथं ग्रहीष्यति ॥ जिन्हें हम पुरानन कहते हैं वे भी मनुष्य ही थे और उन्होंने मनुष्योंकेलिए ही मनुष्यचरिओंका वर्णन किया है। उनमें कोई बी चमत्कार नहीं था। अतः जो आलमी या बुद्धिजड़ हैं उन्हें ही वे अगाध गहन या रहग्यमय मालूम हो रावत पर जो समीक्षक बेना मनरवी है वह उन्म आंख मदकर 'गहन रहस्य के नामपर कैसे स्वीकार कर सकता है। यदेव किञ्चित् विषमप्रकल्पितं पुरातनरूपमिति प्रशस्यते । विनिश्चिताप्यन मनुष्यवाक्कृतिन पठ्यते यत्स्मृतिमोह एव सः ।। कितनी भी असम्बद्ध और अरांगत बातें प्राचीननाके नामपर प्रशंसित हो रही हैं और चल रही है। उनकी असम्बद्धना पुशननोक्त और हमारी अशक्ति' के नामपर भूषण बन रही है तथा मनुष्यकी प्रत्यक्षसिद्ध बोधगम्य और यक्तिप्रवण भी रचना आज नवीनना नामपदरदराई जा रही है। यह तो प्रत्यक्षके ऊपर स्मृतिकी विजय है। यह मात्र स्मतिमझता है। इसका विबेक या समीक्षणसे कोई सम्बन्ध नहीं है । न गौरवाक्रान्तमतिर्षिगाहते किमत्र युक्त किमयुक्तमर्षतः । गुणायबोधप्रभवं हि गोरखं कुलागनावृत्तमतोऽन्यथा भवेत् ॥ प्राननके मिथ्यागीरबका अभिमानी व्यक्ति वक्त और अयक्तवर विचार ही नहीं कर सकता। उसकी बुद्धि उम श्रोथ बडप्पनसे इतनी दब जाती है कि उसकी विचारशक्ति सर्वथा रुद्ध हो जाती है। अन्नमें आचार्य लिखने है कि गोत्र गुणकता है। जिसमें गणं है वह वाहे प्राचीन हो या नवीन या मध्ययगोन, गौरवके योग्य है। इसके सिवाय अन्य गौरवके नामका होल पीटना किसी कलकामिनीके अपने कुलक नाममे सतीत्वको सिद्ध करनेके समान ही है। ___कवि कालिदासने भी इन प्राचीनताबद्धबुद्धियोंका परप्रत्यक्नेयवृद्धि कहा है । वे परीक्षकमतिकी सराहना करते हए लिखते हैं पुराणमित्येव न साधु सन चापि काय नवमित्यवतम् । सन्तः परीक्ष्यान्यत रद भजन्त मूः परप्रत्ययनेय वृद्धिः ॥
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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