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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नरवात
जोमवता कामा नहीं जा उसके पूर्ण रूपको स्पर्श कर सके । गाब्द एक निश्चित दृष्टिकोण से प्रसक्न
जीर वस्तूक पर ही धमका कथन करत में हम नन्द जय गन्द स्वभावतः दिनक्षानुसार अमुक धर्मका जनादन नग्न विलिन पनि मना लिा मरा मा अवश्यही रखना चाहिए जो वक्ता शं श्रोताको भासने न दे1 रयान् ब्यका यही कार्य पर शोना वस्तृवे अनेकानन्यरूप का द्योतन करा कसा है। यद्यपि द्धनेस अर्भकांशिक गत्य प्रसाधनकी स्याहावाणीको न अपनावर उन्हें अत्र्यात बॉटिमें डाला है, पर उनका चित तस्तुको अशांगिकताको स्वीकार अवश्य करता था।
तस्वनिरूपण विश्वव्यवस्थाका निरूपण और नत्त्वनिभपण जदा जदा प्रयोजन है। विश्वव्यवस्थाका ज्ञान न हानगर भी तत्त्जानगे मुविनसाधनापथमं पहुंचा जा सकता है। नत्त्वज्ञान न होने पर विश्वव्यवस्थाका समग्र जान निन्धर और अनर्थक हो सकता। ममक्षके लिए अवश्य जातन्य प्रदार्थ तत्त्वघेणीम लिये जाते हैं। नाधारणतया भानीय मरा देय उपादेय और उनके कारणभूत पदार्थ इस चतुत्र्यहना जान आवश्यक भाननी रही। आय वेदशाम्बभेग रोगनिदान गनिनि और निकिमान चार भागोम विभक्त है।रोगीके लिए मनायम आवश्यक है कि वह अपनेको रोगी समझ : जननर उमअपने गेगा भान नहीं होना नजनक वह चिकित्साके लिए प्रवन ही नहीं हो मकना । योगका मान होने के बाद रोगांनी यह विध्याग भी आवश्यक
उराका यह रोग हट सकता है। रोगी; माध्यतामा ज्ञान ही उम तिकिल्लामें प्रवर्तका होता है। रोगको यह जानना भी आवश्यक है कि यह गोग अमक कागणमि उत्पन्न हुआ है। जिससे वह भाबसमें उन अपश्च
आहार विहारों में दना रहबर अपनेको नीलोग रम सके । जब वह भविष्यम रोगके कारणोंसे दूर रहता है दश मौज्दा रोग का औषधोपचारसे समल उच्छेद कर देता है तभी वह अपने स्वरूपभुत स्थिर-आरोग्यको पा सकता है । अत: जैसे रोगक्तिके लिए रोग रोगनिदान आरोग्य और निकित्सा इस चतुयूहका ज्ञान अत्याअश्यक है उसीतरह भयरोगकी निवृत्तिके लिए संसार संसारके कारण मोक्ष और उसके कारण इन चार मूलतस्वांचा यथार्थजान नितान्न अपेक्षणीय है । बछुने कर्तव्यमान लिए चिकित्साशासनकी तन्ह चार आर्यसत्यों का उपदेश दिया। ये कभी भी आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? आदिके दादानिक विवादमं न तो स्वयं गये और न शिष्योंकोही जाने दिया। उनने इस संबंध में एक बहुत उपयुक्त उदाहरण दिया है कि जैसे किसी व्यक्तिको विषसे वसा हुआ तीर लगा हो । बन्धुजन जव उसके तीरका निकालने के लिए विषवद्यको बुलाते हो, उम समय रोगीको यह मीमांसा कि 'यह तीर फिरा लोहसे बना है? किसने इसे बनाया ? कब बनाया? यह कच. नक स्थिर रहेगा ? या जो यह वैद्य आया है वह निम गोयकार? आदि' निरर्थक है उसीतरह आरमा आदि तत्त्वाकारापचिनन ग्रह्मचर्य साधनके लिए उपयोगी है न निर्वाणके लिए न शान्तिके लिए और न बौधि प्राग्नि आदिके लिए ही। उनने ममक्षके लिए चार आर्यसत्योंका उपदेश दिया-दुःख, दुःलसमुदय, दुःखनिरोध, और दुःयनिरोधमा ।
दुःखसत्यकी व्याख्या बद्धने इस प्रकार की जन्म भी दुःम है, जरा भी दुःख है, मरण भी दुःख है, शोक, परिवेदन, मनकी विकलना भी दस है, इष्ट वियोग, अनिष्टसंयोग, इष्टाप्राप्ति मभी दुःख है । संक्षेपमें पांचों उपादान म्वन्व ही दुखरूप है।
दु:समुदय--कामकी तृष्णा, भवकी तृष्णा और विभवकी तष्णा दुःखका कारण है । जितने इंद्रियोंके प्रिय विषम है प्रिय रूपादि है वे मदा बने रहे उनका वियोग न हो इस तरह उनके संयोगके लिए चित्तकी अभिनन्दिनी वृत्तिको तष्णा कहते हैं और यही तृष्णा समस्त दुःखोंका कारण है। दु:खनिरोध-इस तृष्णाकै अत्यंन निरोध या विनाशको निरोध आर्यसत्य कहते हैं।
- - - दीर्घनिः महाससिपान सुत ।