________________
३३२
तत्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार
[२५ संसार और मोक्ष जीवके ही होते है अतः सर्वप्रथम जीय तत्व कहा है। जीव अजीवके निमित्तसे ही संसार या मोक्ष पर्यायको प्राप्त होता है अतः जीवके बाद अजीव का कथन किया है। जीव और अजीयक निमित्तसे ही आम्रव होता है अतः इसके बाद आस्रव तथा आसबके बाद बन्ध होता है अतः उसके बाद बन्ध का निर्देश किया है । बन्ध को रोकनेवाला संघर होता है अतः बन्ध के बाद संघर तथा जिसने अागामी काँका संवर कर लिया है उसीके संचित कर्मोको निर्जरा होती है इसलिए उसके अनन्तर निर्जराका कथन किया गया है ! सबफे अन्तमें मोक्ष प्राप्त होता है अतः मोक्षका निर्देश अन्तमें किया गया है.
पुण्य और पापका श्रास्रव और बन्ध तत्त्वम अन्तर्भाव हो जाता है अतः उन्हें पृथक् नहीं कहा है।
प्रश्न-श्रामय बन्ध संपर निर्जरा और मोक्ष ये पांच तत्त्व द्रव्य और भावरूप होते हैं। उनमें न्यरूप तत्त्वोंका अजीब में तथा भावरूप तत्त्वोंका जीवमें अन्तर्भाव
किया जा सकता है, अतः दो ही तत्त्व कहना चाहिए? मार्गदर्शक :- आचावतार मारो गोक्ष तो प्रधान है अतः उसे तो अवश्य कहना ही होगा।
मोक्ष संसारपूर्वक होता है। अतः संसारका कारण बन्ध और आम्रव भी कहने चाहिए, इसी तरह मोक्षके कारण संवर और निर्जरा भी। तात्पर्य यह कि प्रधान कार्य संसार और मोक्ष तथा उनके प्रधान कारण आस्रव बन्ध और संघर निर्जराका कथन किया गया है । सयर और निर्जयका फल मोक्ष है तथा आस्रव और बन्धका फल संसार । यदापि संसार और मोक्ष में आस्रवादि चारोंका अन्तर्भाव किया जा सकता है फिर भी जिस प्रकार 'क्षत्रिय पाए हैं। शूरवर्मा भी' इस वाक्यमें सामान्य क्षत्रियों में अन्तर्भूत शूरवर्माका पृथक् कधन विशेष प्रयोजनसे किया जाता है उसी प्रकार विशेष प्रयोजनके लिए ही आवादिक तत्त्वोंका भिन्न भिन्न रूपसे कथन किया है।
प्रश्न-जीबादिक सात द्रव्यवाची है तथा तत्वशब्द भाववाची है अतः इनमें व्याकरणशाखके नियमानुसार एकार्थप्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता ?
उत्तर-द्रव्य और भावमें अभेद है अत: दोनों एकार्थप्रतिपादक हो सकते हैं। अथवा जीवादिकमें सत्त्वरूप भाषका अारोप करके सामानाधिकरण्य बन जाता है।
सामानाधिकरण्य होने पर भी मोक्ष शब्द पुल्लिग तथा तत्त्वशब्द नपुंसफलिंग बना रह सकता है। क्योंकि बहुतसे शब्द अजहल्लिङ्ग अर्थात् अपने लिङ्गको न छोइनेवाले होते हैं। इसी तरह बचनभेद भी हो जाता है। 'सम्यग्दर्शनझानचारित्राणि भोक्षमार्गः' इस प्रथमसूत्र में भी इसी तरह सामाधिकरण्य वन जाता है। शब्दव्यवहार जिन अनेक निमित्तोंसे होता है, उन प्रकारोंका कहते हैं---
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ।। ५ ॥ नाम स्थापना द्रव्य और भावसे सम्यग्दर्शनादि और जीवादि पदार्थीका व्यवहारके लिए विभाग या निक्षेप (दृष्टिके सामने रखना ) होता है।
शब्दकी प्रवृति द्रव्य क्रिया जाति और गुणके निमित्तसे देखी जाती है। जैसे विस्थ-लकड़ीके मृगमें काष्ठद्रव्यको निमित्त लेकर मृगशब्दका प्रयोग होता है। करनेबालेको का कहना क्रियानिमित्तक है। द्विजत्व जातिके निमित्तसे होनेवाला द्विजव्यवहार जातिनिमित्तक है। फीके लालगुणके निमित्तसे होनेवाला पाटलग्यपहार गुणनिमित्तक है। शब्द के इन द्रव्य गुणादि प्रवृत्तिनिमितोंकी अपेक्षा न करके व्यवहार के