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________________ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज पञ्चम अध्याय अजीब तत्वका वर्णनअजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ धर्म,अधर्म,अाकाश और पुद्गल ये चार द्रव्य अजीवक्राय हैं। शरीरके समान प्रलय या पिण्ड रूप होनेके कारण इन द्रव्योंको अजीवकाय कहा है । यद्यपि काल द्रव्य भी अजीव है लेकिन प्रचयरूप न होने के कारण कालको इस सूत्र में नहीं कहा है। काल दुव्यके प्रदेश मोती के समान एक दूसरेसे पृथक् हैं । निश्चयनयसे एक पुद्गल परमाणु बहुप्रदेशी नहीं है किन्तु उपचारसे एक पुद्गल परमाणु भी बहुप्रदेशी कहा जाता है क्योंकि उसमें अन्य परमाणुओं के साथ मिलकर पिण्डरूप परिणत होने की शक्ति है। प्रश्न- 'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम' ऐसा आगे सूत्र है । उसीसे यह निश्चय हो जाता है कि धर्म आदि द्रव्य बहुपदेशी हैं। फिर इन द्रव्योंको बहुप्रदेशी बतलाने के लिये इस सूत्र में काय शब्दका ग्रहण क्यों किया? उत्तर-इस सूत्र में काय शब्द यह सूचित करता है कि धर्म आदि द्रव्य घहुप्रदेशी है और आगेके सूत्रोंसे उन प्रदेशोंका निर्धारण होता है कि किस द्रव्यके कितने प्रदेश हैं । काल द्रव्यके प्रदेश प्रचयरूप नहीं होते हैं, इस बातको बतलाने के लिये भी इस सूत्रमें काय शरदका ग्रहण किया है। 'अजीबकाया इस शब्द में अजीव विशेषण है और काय विशेष्य है। इसलिये यहाँ विशेषणविशेष्य समास हुआ है। किन्हीं दो पदार्थों में व्यभिचार (असम्बन्ध) होनेपर किसी एक स्थानमें उनके सम्बन्धको बतलाने के लिये विशेषणविशेष्य समास होता है। काल द्रव्य अजीव है लेकिन काय नहीं है, जीत्र द्रव्य काय है लेकिन अजीव नहीं है। अतः अजीव और कायमें व्यभिचार होने के कारण विशेषणविशेष्य समास हो गया है । द्रव्याणि ।। २॥ उक्त धर्म आदि चार द्रव्य हैं। जिसमें गुण और पर्याय पाये जॉय उनको द्रव्य कहते हैं। नयायिक कहते हैं कि जिसमें द्रव्यत्व नामक सामान्य रहे वह द्रव्य है । ऐसा कहना ठीक नहीं है। जब द्रव्यत्व और द्रव्य दोनोंकी पृथक पृथक् सिद्धि हो तब द्रव्यत्वका द्रव्यके साथ सम्बन्ध हो सकता है । लेकिन दोनोंकी पृथक पृथक् सिद्धि नहीं है। और यदि दोनों की पृथक् सिद्धि है. तो बिना द्रन्यत्यके भी द्रव्य सिद्ध हो गया तब द्रव्यत्यके सम्बन्ध माननेकी क्या आवश्यकता है ? इसी प्रकार गुणकि समुदायको द्रव्य कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि गुण और समुदायमें अभेद मानने पर एक ही पदार्थ रहेगा और भेद मानने पर गुणोंकी कल्पना व्यर्थ है क्योंकि विना गुणों के भी समुदाय सिद्ध है। ____ गुण और द्रव्यमें कथमित भेदाभेद माननेसे कोई दोष नहीं आता । गुण और द्रञ्च पृथक् धक् उपलब्ध नहीं होते इसलिये उनमें अभेद है और उनके नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि भिन्न भिन्न है इसलिये उनमें भेद भी है। पूर्व सूत्रमें धर्म आदि बहुत पदार्थ है इसलिये इस सूत्रमें धर्म आदिका द्रव्यके साथ
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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