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________________ ९।२३-२४] नवम अध्याय ४५५ आलोचना आदि किन फिन दोषोंके करने पर फिये आते हैं श्राचार्यसे बिना पूछे आतापन आदि योग करने पर, पुस्तक पीछी आदि दूसरों के सपकरण लेने पर, परोक्षमें प्रमादसे आचार्यकी आज्ञाका पालन नहीं करने पर, आचार्यसे बिना पूछे आचार्यके कामको चले जाकर आनेपर, दूसरे संघसे बिना पूछे अपने संघमें आ जाने पर, नियत देश कालमें करने योग्य कार्यको धर्मकथा आदिमें व्यस्त रहने के कारण भूल जाने पर कालान्तरमें करने पर आलोचना की जाती है। छह इन्द्रियों में से बचन आदि की दुष्प्रवृत्ति होनेपर, आचार्य आदिसे हाथ, पैर आदिका संघट्ट (रगढ़ ) होजाने पर, प्रत, समिति और गुप्तियों में स्वल्प अतिचार लगनेपर, पैशुन्य, कलह, आदि करने पर, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय आदिमें प्रमाद करने पर, कामविकार होने पर और दूसरोंको संकेश आदि देनेपर प्रतिक्रमण किया जाता है। दिन और रात्रिके अन्तमें भोजन गमन प्रादि करने पर, केशलोंच करने पर, नखोंका छेद करने पर, स्वप्नदोष होने पर, रात्रिभोजन करने पर और पक्ष, मास, चार मास, वर्ष पर्यन्त दोष फरने पर आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों होते हैं। मौनके बिना केशलोच करनेमें, पेटसे कीड़े निकलनेपर, हिमपात मफलर या प्रचण्ड मार्गदर्शकवायुसेसंचाई होमो पाविशिलामूमि पर प्लान पर, हरे घास पर चलने पर, कीचड़में चलने पर, जङ्घातक जलमें घुसने पर, दूसरेकी वस्तुको अपने काममें लेने पर, नाव श्रादिसे नदी पार करने पर, पुस्तकके गिर जानेपर, प्रतिमाकं गिर जाने पर, स्थावर जीवोंके विघाप्त होने पर, बिना देखे स्थानमें शौच आदि करने पर, पाक्षिक प्रतिक्रमण व्याख्यान आदि क्रियाओं के अन्त में, अनज्ञान में मल निकल जाने पर व्युत्सर्ग किया जाता है। इसी प्रकार वप, छेद आदि करनेके विषयमें आगमसे शान कर लेना चाहिये । नव प्रकारके प्रायश्चित्त करनेसे भावशुद्धि, चश्चलताका अभाव, शल्यका परिहार और धर्म में दृढ़ता आदि होती है। बिनयके भेद ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ मानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय ये चार विनय हैं। आलस्य रहित होकर, देश काल भाव आदि की शुद्धिपूर्वक, विनय सहित मोक्षके लिये यथाशक्ति ज्ञानका प्राण, स्मरण आदि करना ज्ञानविनय है। तत्त्वोंके श्रद्धानमें शंका, कांक्षा आदि दोषोंका न होना दर्शनविनय है। निर्दोष चारित्रका स्वयं पालन करना और चारित्र धारक पुरुषोंकी भक्ति श्रादि करना चारित्रविनय है। आचार्य, उपाध्याय, आदिको देखकर खड़े होना, नमस्कार करना तथा उनके परोक्षमें परोक्ष विनय करना, उनके गणोका स्मरण करना आदि उपचार विनय है। विनयके होने पर मानलाभ, आहारविशुद्धि सम्यगाराधना आदि होती है। वयावृत्त्यके भेद-- आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसङ्यसाधुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दश प्रकार के मुनियोंकी सेवा करना सो दश प्रकारका बयावृत्त्य है। जो स्वयं व्रतोंका आचरण करते हैं और दूसरोंको कराते हैं उनको आचार्य कहते हैं । जिनके पास शाखाका अध्ययन किया जाता है वे उपाध्याय हैं। जो महोपयास आदि
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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