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________________ तस्त्रार्थवृति हिन्दी-सार मार्गदर्शक : ४९६ आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज वर्पोको करते हैं वे तपस्वी हैं। शास्त्रों के अध्ययन करने में तत्पर मुनियोंको शैक्ष्य कहते हैं । रोग आदिसे जिसका शरीर पीड़ित हो उस मुनिको ग्लान कहते हैं। वृद्ध मुनियोंके समूहको गण कहते हैं। दीक्षा देनेवाले आचार्यके शिष्यों के समूहको कुल कहते हैं। ऋषि, मुनि यति और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों के समूहको संघ कहते हैं अथवा मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविकाओं के समूहको संघ कहते हैं । जो चिरकालसे दीक्षित हों उसको साधु कहते हैं | वक्तृत्व आदि गुणसे शोभित और लोगों द्वारा प्रशंसित मुनिको मनोन कहते हैं। इस प्रकार के असंयत सम्यग्द्रष्टिको भी मनोज्ञ कहते हैं । इन दश प्रकार के मुनियोंको व्याधि होनेपर प्रासुक, औषधि, भक्तपान आदि पध्यवस्तु, स्थान और संस्तरण आदिके द्वारा उनकी वैयावृत्ति करना चाहिये। इसी प्रकार धर्मोपकरणों को देकर, परोपका नाश कर, मिध्यात्व आदिके होनेपर सम्यक्त्वमें स्थापना करके तथा बाह्य वस्तुके न होनेपर अपने शरीर से ही श्लेम्म आदि शरीरमलको पोंछ करके वैयावृत्ति करनी चाहिये। वैयावृत्य करनेसे समाधिकी प्राप्ति, ग्लानिका अभाव और प्रवचन वास्सल्य आदि की प्रकटता होती है। स्वाध्यायके भेद वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः || २५ || वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये स्वाध्यायके पाँच भेद हैं। फलकी अपेक्षा न करके शास्त्र पढ़ना शास्त्रका अर्थ कहना और अन्य जीवोंके लिये शा और अर्थ दोनोंका व्याख्यान करना वाचना है। संशयको दूर करनेके लिये अथवा निश्चयको दृढ़ करनेके लिये ज्ञात अर्थको गुरुसे पूछना पृच्छना है। अपनी उन्नति दिखाने पर प्रतारण, उपहास आदिके लिये की गई पूछना संवरका कारण नहीं होती है। एका मनसे जाने हुए अर्थका बार बार अभ्यास या विचार करना अनुप्रेक्षा है। शुद्ध उच्चारण करते हुए पाठ करनेको आम्नाय कहते हैं। दृष्ट और अष्ट फलकी अपेक्षा न करके असंयमको दूर करनेके लिये, मिध्यामार्गका नाश करनेके लिये और आत्माके कल्याण के लिये धर्मकथा आदिका उपदेश करना धर्मोपदेश है । स्वाध्याय करनेसे बुद्धि बढ़ती है, अध्यवसाय प्रशस्त होता है, तपमें वृद्धि होती है। प्रवचनकी स्थिति होती है, अतीधारों की शुद्धि होती है । संशयका नाश होता है, मिथ्यायादियोंका भय नहीं रहता है और संवेग होता है ! व्युत्सर्गके भेद माथाभ्यन्तरोषध्योः ॥ २६ ॥ बाह्योपधि व्युत्सर्ग और आभ्यन्तरोपथि व्युत्सर्ग ये दो व्युत्सर्ग हैं। धन, धान्य आदि बाह्य परिमका त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है और काम, क्रोध, आदि आत्मा के दुष्टभावका त्याग करना आभ्यन्तरोपथिव्युत्सर्ग है। नियत काल तक अथवा याबकजीवन के लिये शरीरका त्याग कर देना सो भी आभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है । न्युत्सर्गसे निर्ममत्य, निर्भयता, दोषका नाश, जीनेकी आशाका नाश और मोक्षमार्ग में तत्परता आदि होती हैं। : 1
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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