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नवम अध्याय
ध्यानका स्वरूप उत्तमसंहननस्यैकाप्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥२७॥
चित्तको अन्य विकल्पोंसे हटाकर एक ही अर्थमें लगानेको ध्यान कहते हैं। ध्यान उत्तमसंहनन वालों के अन्तर्मुहूर्त तक हो सकता है।
ववृषभनाराच वनाराच और नाराच ये तीन उसम संहनन कहलाते हैं । ध्यानके आलम्बन भूत द्रव्य या पर्याय को 'अन' और एक 'अप' प्रधान वस्तुको एकाम' कहते हैं। एकाप में चिन्ताका निरोध करना अर्थात् अन्य अर्थोकी चिन्ता या विचार छोड़कर एक ही अर्थका विचार करना ध्यान कहलाता है। ध्यानका विषय एक ही अर्थ होता है । जबतक चित्त में नाना प्रकार के पदार्थों के विचार आते रहेंगे तब तक वह ध्यान नहीं कहला सकता। अतः एकाग्रचिन्तानिरोधका ही मानना है यायाक्सा स री एक अर्थमें बहुतकाल तक चित्त को लगाना अधिक कठिन है अतः अन्तर्मुहूर्त के बाद एकाग्रचिन्तानिरोध नहीं हो सकता । यदि अन्तर्मुहूर्त के लिये निश्चल रूपसे एकाग्रचिन्तानिरोध हो जाय तो सर्व कर्मोंका क्षय शीन हो जाता है।
प्रश्न-चिन्ताके निरोध करनेको ध्यान कहा गया है और निरोध अभावका कहते हैं। यदि एक अर्थ में चिन्ताका अभाव (एकाग्र चिन्ता निरोध) ध्यान है तो ध्यान गगनकुसुमकी तरह असत् हो जायगा।
___ उत्तर -ध्यान सत् भी है और असत् भी है । ध्यानमें केवल एक ही अर्थकी पिता रहती है अतः ध्यान सत् है तथा अन्य अर्थोकी चिन्ता नहीं रहती है अतः ध्यान असत् भी है। अथवा निरोध शब्दका अर्थ अभाव नहीं करेंगे। जब निरोध शब्द भाववाचक होता है तब उसका अर्थ अभान होता है और जब कर्मवाचक होता है तब उसका अर्थ होता है वह वस्तु जो निरुद्धकी गई (रोकी गई) हो । अतः इस अर्थमें एक अर्थमें अविचल शानका नाम ही ध्यान होगा। निश्चल दीपशिखाकी तरह निस्तरा ज्ञानको ही ध्यान कहते हैं।
तीन उत्तम संहननोंमें से प्रथम संहननसे ही मुक्ति होती है। अन्य दो संहननोंसे ध्यान तो होता है किन्तु मुक्ति नहीं होती है ।
ध्यानके भेद
आरौद्रधनूँशुक्लानि ॥ २८ ॥ आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धHध्यान और शुक्लध्यान ये ध्यानके चार भेद हैं ।
दुःखावस्थाको प्राप्त जीवका जो ध्यान (चिन्ता) है उसको आर्तध्यान कहते हैं। रुद्र (कर) प्राणी द्वारा किया गया कार्य अथवा विचार रौद्रध्यान है। वस्तुके स्वरूपमें चित्तको लगाना धर्म्यध्यान है । जीवोंके शुद्ध परिणामोंसे जो ध्यान किया जाता है यह शुक्लध्यान है।
प्रथम दो ध्यान पापासबके कारण होनेसे अप्रशस्त ध्यान कहलाते है और कर्ममलको नष्ट करने में समर्थ होने के कारण धर्म्य और शुक्ल ध्यान प्रशस्त ध्यान कहलाते हैं।
परे मोक्ष हेत् ॥ २९॥ इनमें धर्म्य और शुक्ल ध्यान मोक्षके कारण हैं। धर्म्यध्यान परम्परासे मोक्षका
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