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४९८ तस्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[९/३०-३४ कारण होता है और शुक्ल ध्यान साक्षात् मोक्षका कारण होता है, लेकिन उपशम श्रेणीकी अपेक्षासे तीसरे भचमें मोक्षका दायक होता है।
जब धर्म्य और शुक्लध्यान मोक्षके कारण हैं तो यह स्वयं सिद्ध है कि आत और रौद्र ध्यान संसारके कारण हैं।
आसंध्यानका स्वरूप और भेदआर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्याहारः ॥ ३० ॥
अनिष्ट पदार्थके संयोग हो जाने पर उस अर्थको दूर करने के लिये बार बार विचार करना सो अनिष्टसंयोगज नामक प्रथम आर्तध्यान है। अनिष्ट अर्थ चेतन और अचेतन दोनों प्रकारका होता है । कुरुप दुर्गन्धयुक्त शरीर सहित स्त्री आदि तथा भयको उत्पन्न करने वाले शत्रु, सर्प आदि अमनोज्ञ चेतन पदार्थ है। और शस्त्र, विष, कण्टक आदि अमनोज्ञ अचेतन पदार्थ हैं। विपरीत मनोजस्य ॥ ३१ ॥
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज त्री, पुत्र, धान्य आदि इष्ट पदार्थ के वियोग होजाने पर उसकी प्राप्तिके लिये बार बार विचार करना सो इष्टसंयोगज नामक प्रितीय आतध्यान है।
वेदनायाश्च ।। ३२ ।। वेदना (रोगादि) के होनेपर उसको दूर करने के लिये बार बार विचार करना सो वेदनाजन्य तृतीय आध्यान है। रोगके होनेपर अधीर हो जाना, यह रोग मुझे बहुत कष्ट दे रहा है, इस रोगका नाश कब होगा इस प्रकार सदा रोगजन्य दुःखका ही विचार करते रहनेका नाम नृतीय आर्तध्यान है।
।॥ ३३ ॥ ___ भविष्य कालमें भोगोंकी प्राप्तिको आकांक्षा में चित्तको बार बार लगाना सो निदानजे नामक चतुर्थ आर्तध्यान है।
प्रासंध्यानके स्वामीतदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३४ ॥ ऊपर कहा हुआ चार प्रकारका आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयतों के होता है। ब्रतोंका पालन न करनेवाले प्रथम चार गुणस्थानों के जीव अविरत कहलाते हैं। पश्चम गुणस्थानयर्ती श्रावक देशविरत है। और पन्द्रह प्रमादसहित छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिको प्रमत्तसंयत कहते हैं । प्रथम पाँच गुणस्थानवी जीवोंके चारों प्रकारका आतभ्यान होता है. लेकिन छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिके निदानको छोड़कर अन्य तीन आर्तध्यान होते हैं।
प्रश्न-देशघिरतके निदान वार्तध्यान नहीं हो सकता है क्योंकि निदान एक शल्य है और शल्य सहित जीवके व्रत नहीं हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि देशघिरतके निदान शल्य नहीं हो सकती है।
उत्तर-देशविरत अणुव्रतोंका धारी होता है और अणुव्रतों के साथ स्वल्प निदान