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________________ होने के कारण कभी कभी हिस ९।३५-३६ । नषम अध्याय रह भी सकता है। अतः देशविरतमें चारों आतभ्यान होते हैं। प्रमत्तसंयतके प्रभादके उदयकी अधिकता होनेसे तीन आतध्यान कभी कभी होते हैं। रौद्रध्यानका स्वरूप व स्वामीहिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेम्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ ३५ ॥ हिसा, मूठ, चोरी और विषयसंरक्षण विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति ) इन चार वृत्तियोंसे रौद्रध्यान होता है । इन चार कार्यों के विषय में सदा विचार करते रहना और इन कायों में प्रवृत्ति करना सो रोद्रध्यान है। रौद्रध्यान अविरत और देशविरत गुणस्थानवर्ती मानदेशक होवाडाचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज प्रश्न—अविरत जीवके रौद्रभ्यानका होना तो ठीक है लेकिन देशविरत के रौद्रध्यान कसे हो सकता है ? उचर-देशविरतके भी रौद्र ध्यान कभी कभी होता है। क्योंकि एकदेशसे विरत छा होनेसे देश विरतके रौद्रध्यान होता है । लेकिन सम्यग्दर्शन सहित होनेके कारण इसका रौद्र ध्यान नरकादि गतियोंका कारण नहीं होता है। सम्यग्दर्शन सहित जीव नारकी, तिर्यश्च, नपुंसक और स्त्री पर्याय में उत्पन्न नहीं होता है तथा दुष्कुल, अल्पायु और दरिद्रताको प्राप्त नहीं करता है | प्रमरासंयतके रौद्रध्यान नहीं होता है क्योंकि रौद्रध्यानके होने पर असंयम हो जाता है। धर्मध्यानका स्वरूप व भेद-- आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धम्र्यम् ॥ ३६ ।। आशाविचय अपायचिचय विपाकविचय और संस्थानविचय, ये धर्म्यध्यानके चार भंद हैं। आशा, अपाय,विपाक और संस्थान इनके विषयमें चिन्तवन करनेको धर्म्य ध्यान कहते हैं। - आज्ञायिचय-आप्तवताके न होनेपर, स्वयं मन्दबुद्धि होनेपर, पदार्थों के अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण, हेतु, दृष्टान्त आदिका अभाव होने पर जो आसन्न भन्य जीव सर्वज्ञप्रणीत शालको प्रमाण मानकर यह स्वीकार करता है कि जैनागममें वस्तुका जो स्वरूप बतलाया वह वैसा ही है, जिनेन्द्र भगवानका उपदेश मिथ्या नहीं होता है। इस प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ के विषयमं जिनेन्द्रकी आज्ञाकी प्रमाण मानकर अर्थ के स्वरूपका निश्चय करना आझाविचय है । अथवा वस्तुके तत्त्वको यथावत् जाननेपर भी उस वस्तुको प्रतिपादन करनेकी इच्छासे तक, प्रमाण और नयके द्वारा उस वस्तु के स्वरूपका चिन्तवन या प्रतिपादन करना आझाविचय है। अपायविचय--मिथ्यारष्टि जीव जन्मान्धके समान है वे सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत मार्गसे पराकमुख रहते हुए भी मोक्षकी इच्छा करते हैं लेकिन उसके मार्गको नहीं जानते हैं। इस प्रकार सन्मार्गके विनाशका विचार करना अपायविचय है । अथवा इन प्राणियों के मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारिम्रका विनाश कैसे होगा इस पर विचार करना अपार्यावचय है। विपाकविचय-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके अनुसार होनेवाले ज्ञानावरण आदि पाठ कर्मों के फलका विचार करना विपाकविचय है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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