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________________ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [१२१ पापोपदेश अनर्थदण्डके चार भेद हैं-कलेशवणि ज्या, तिम्वणिज्या, बधकोपदेश और प्रारम्भोपदेश । अन्य देशोंसे कम मूल्यमें आनेवाले दासी-दासोंको लाकर गुजरात आदि देशों में बेचनेसे महान् धनलाभ होता है ऐसा कहना क्लेशयणिज्या पापोपदेश है। इम देशके गाय मैस बल ऊँट आदि पशुओंकी दूसरे देशमें बेचनेसे अधिक लाभ होता इस प्रकार उपदेश देना निर्यन्वणिज्या पापोपदेश है। पाप कम से आजीविका करने वाले धोबर शिकारी आदिमे मा कहना कि उस स्थान पर मछली मृग बराह आदि बहुत है उधकोपदेश है । नीच आदमियोंसे ऐसा कहना कि भूमि एस जोती जाती है, जल एसे निकाला जाता है. चनमें आग इस प्रकार लगाई जाती है, वनस्पति से खोदी जाती हूँ इत्यादि उपदेश प्रारम्भोपदेश है। बिना प्रयोजन पृथिचं कूटना जल सींचना अग्नि जलाना पंखा आदिसे वायु उत्पन्न करना वृक्षों के फल फूल लता आदि तोड़ना तथा इसी प्रकार के अन्य पाप कार्य करना प्रमादाचरित है। दूसरे प्राणियोंके घातक मार्जार सर्प बाज आदि हिंसक पशु-पक्षियोंका तथा मार्गदर्शक विष कुठारायलमीरस्वविधितिमा जीपमनायामा संग्रह और विक्रय करना हिंसादान है। हिंसा राग द्वेष आदिको बदनिघाल शास्त्रीका पढ़ना पढ़ाना सुनना सुनाना व्यापार करना आदि दुःश्रुति है। इन पांचों प्रकारके अनर्थदण्डोंका त्याग करना अनर्धदण्ड व्रत है। दिनत देशत्रत और अनर्थदण्डवत ये तीनों अगुव्रतोंकी वृद्धि में हेतु होने के कारण शुगवत कहलाते हैं। समयशब्दसे स्वार्थ में इक' प्रत्यय होनेपर सामायिक शब्द बना है। एफरूपसे परिणमन करनेका नाम समय है और समयको ही सामायिक कहते हैं। श्रथया प्रयोजन अर्थ में इकण् प्रत्यय करनेसे समय ( एकत्यसप परिणति) ही जिसका प्रयोजन हो वह सामायिक है। तात्पर्य यह है कि देवचन्दना आदि कालमें बिना संक्शक सब प्राणियों में ममता श्रादिका चिन्तवन करना सामायिक है। सामायिक करनेवाला जितने काल तक सामायिक में स्थित रहता है उनने काल तक सम्पूर्ण पापोंकी निवृत्ति हो जानेग वह उपचारसे महान ती भी कहलाता है। लेकिन संयमको घात करनेत्राली प्रत्याख्यानाधरण कपायके उदय होनेसे वह सामायिक काल में संयमी नहीं कहा जा सकता । सामायिक करनेवाला गृहस्थ परिषण संयमके विना भी उपचारसे महानती है जैसे राजपदके बिना भी सामान्य क्षत्री राजा कहलाता है। __ अष्टमी और चतुर्दशीको प्रोषध कहते हैं। स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषयों के त्याग करनेको उपवास कहते हैं। अतः प्रोषध ( अष्टमी और चतुर्दशी में उपवास करनेको प्रोपधोपवास कहते हैं। अर्थात् अशन पान खान और लेड इन चार प्रकारके आहारका अष्टमी और चतुर्दशीको त्याग करना प्रोषधोपवास है। जो श्रापक सब प्रकारके आरंभ स्वशरीरसंस्कार स्नान गन्ध माला आदि धारण करना छोड़कर चैत्यालय आदि पवित्र स्थानमें एकाग्र मनले धर्सकथाको कहना सुनता अथवा चिन्तवन करता हुआ उपवास करता है, वह प्रोपधोपवासनती है। भाजन पान गन्ध माल्य ताम्बूल आदि जो एक बार भोगने में आने वे उपभोग है और आभूपण शव्या घर यान वाहन आदि जो अनेक बार भोगनेमें आयें वे परियोग है। ध्यमांग और.परिभागके स्थानमें भोग और उपभोका भी प्रयोग किया जाता है । उपभोग
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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