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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज से प्रमाणसप्तभंगीका प्रत्येक बाक्य भिन्न हो जाता है। नयसप्तमगीमें एक धर्म प्रधान होता है तथा अन्यधर्म पौण। इसमें मुख्यधर्म ही गहीत होता है, शेषका निराकरण तो नही होता पर ग्रहण भी नहीं होगा। यही सकलादेश और विकलादेशका पार्थक्य है । 'स्यात्' शब्दका प्रयोग दोनोंमें होता है। सकलादेशमें प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द यह बताता है कि जैसे अस्तिमुखेन सकल वस्तुबा ग्रहण किया गया है वैसे 'नास्ति' आदि अनन्त मखोंसे भी ग्रहण हो सकता है। विकलादेशका स्यात् शब्द विवक्षित धर्मके अतिरिक्त अन्य शेष धर्मोका वस्तुमें अस्तित्व मूचित करता है।
स्थाद्वाद स्थावाब-जनदर्शनने सामान्यरूपसे यावत सतको परिणामीनित्य माना है। प्रत्येक सत् अनन्त धर्माएमक है। उसका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है । अनेकान्तात्मक अर्थका निर्दष्ट कासे कथन वारनंवाली भाषा स्थावाद रूप होती है। उसमें जिस धर्मका निरूपण होता है उसके साथ स्यात्' शब्द इसलिपा लगा दिया बाता है जिससे पूरी वस्तु उमी धर्मरूप न समझ ली जाय । अविवक्षित दोष धोका अस्तिन्य भी उसमें है यह प्रतिपादन 'स्यात्' शम्दसे होता है 1
स्याद्वादका अर्थ है-स्थात-अमुक निश्चित अपेक्षासे। अमुक निश्चित अपेक्षासे घट अस्ति होई और अमुक निश्चित अपेक्षासे घट नास्ति ही है। स्यात्का अर्थ न शायद है न सम्भवतः और न कदाचित् हो। 'स्यात्' शब्द मुनिश्चित दृष्टिकोणका प्रतीक है। इस शब्दके अर्थको पुराने मतवादी दार्शनिकोंने ईमानदारी समसनका प्रयास तो नहीं ही किया था किंतु आज भी वैज्ञानिक दष्टिकी दहाई देनेवाले वर्णमलेखक उसी प्रान्त परम्पराका पोषण करते आते हैं।
स्थावाद-सुनयका निरूपण करनेवाली भाषा पद्धति है। 'स्यात्' शब्द यह निश्चितरूपस बनाता है कि वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है उसमें इसके अतिरिक्त भी धर्म विद्यमान है। तात्पर्य यह कि- अविवक्षित शेष धर्मोका प्रतिनिधित्व स्यात् शब्द करता है। 'रूपवान् घटः यह वाक्य भी अपने भीतर 'स्यात्' शब्दको छिपाए हुए है। इसका अर्थ है कि 'स्यात् रूपवान् घटः' अर्थात् बक्षु इन्द्रियके द्वारा ग्राह्य होने से या रूप गुणकी सत्ता होनेसे घड़ा रूपवान् है. पर रूपवान ही नहीं है उसमें रम गन्ध स्पर्श आदि अनेक गण, छोटा, बड़ा आदि अनेक धर्म विद्यमान है। इन अविअमित गणधर्मोक अस्तित्वको रक्षा करनेवाला 'स्यात्' शब्द है । 'रयात्' का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किन्तु निश्चय है। अर्थात् घड़े में रूपके अस्तित्वको सूचना तो रूपवान शब्द दे ही रहा है। पर उन उपेक्षित शेष धमोंके अस्तित्वकी सूचना 'स्यात्' शब्दमे होती है। मारांश यह कि 'स्यात' गद 'रूपवान के साथ नहीं जुटता ई., किन्तु अविवक्षित प्रमंके माथ । वह 'रूपवान् को पूरी वस्तु पर अधिकार जमानेसे रोकता है और कह देना है कि वस्तु वरन बड़ी है उसम मार ही एक है। एमे श्नन्त गुणधर्म वस्तुमें लहरा रहे हैं। अभी रूपकी विवक्षा या जसपर वृष्टि होनेगे बढ़ सामने । या शब्दगे उन्चरित हो रहा है, सो यह मुख्य हो सकता है पर वही सब कुछ नहीं है। दुम अगम : भको मुन्यता होनेपर रूप गोय हो जायगा और वह अविवक्षित ष थर्मोकी गनिमें शामिल हो जाएगा .
स्यात' शब एक प्रहरी है. जी उनवरित धर्मको इधर उधर नहीं जाने देता। यह उन वि. बक्षित धोका संरक्षक है। इसलिए 'रूपवान् के माथ 'म्यात राब्दका अन्वय करके जो लोग पहेम रूपकी भी स्थितिको स्यातका सायद या संभावना अर्थ काये मंदिग्श बनाना चाहते है ये मम ।। इसीतरह 'स्यादग्नि पर: वाक्यम घट: अस्ति' यह अस्तित्व अंग घरभे मुनिश्चिनरूपम विद्यमान है। स्यात् दाब्द उस अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं बनाना किन्तु जगकी वास्तविक आंशिक म्पितिको मूत्रमा देकर अन्य नास्ति आदि धर्मोके सदभावका प्रतिनिधित्व करता है। सारांश यह कि 'स्यात्' गद एक स्वतंत्र पद है जो वस्तुके शेषांशका प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है कि कहीं अस्ति नामका धर्म, जिसे शम्दसे उच्चारित होने के कारण प्रमुखता मिली है. पूरी वस्तुको न हड़प जाय, अपने अन्य नास्ति