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________________ ६८ स्वार्थपुति पस्तावना आदि सहयोगियोंके स्थानको समाप्त न कर दे। इसलिए वह प्रतिवाक्यमें चेतावनी देता रहता कि हे भाई अस्ति, तुम वस्तुके एक अंश हो, तुम अपने अन्य नास्ति जादि भाइयोंके हरुको हडपनेकी चेष्टा नहीं करना । इस भयका कारण इस भयका कारण है नित्य ही है, अनित्य ही है' आदि अथवाक्योंने अपना पूर्ण अधिकार वस्तुपर जमाकर अनधिकार चेष्टा की है और जगतमें अनेक तरह से वितण्डा और संघर्ष उत्पन्न किये हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थके साथ तो अन्याय हुआ ही है. पर इस बाद-प्रतिवादने अनेक मतवादोंकी सृष्टि करके अहंकार हिंसा संघर्ष अनुदारता परमतासहिष्णुता आदि विश्वको अशान्त और आकुलतामय बना दिया है । 'स्यात्' शब्द वाक्यके उस जहरको निकाल देता है जिससे अहंकारका सर्जन होता है और वस्तुके अन्य धर्मकि सद्भावसे इनकार करके पदार्थके साथ अन्याय होता है। अपेक्षाको द्योतन करके जहाँ 'अस्तित्व धर्मकी स्थिति सुदृढ़ और सहेतुक बनाता है वहाँ उसकी उस सर्वहारा प्रवृत्तिको भी नष्ट करता है जिससे वह पूरी वस्तुका मालिक बनना चाहता है। वह न्यायाधीशको तरह तुरन्त कह देता है किन्हे अस्ति, तुम अपने अधिकारकी सीमाको समझो। स्वद्रव्य-क्षेत्र का भावको दृष्टि से जिस प्रकार तुम पटमें रहते हो उसी तरह पर द्रव्यादिकी अपेक्षा 'नास्ति' नामका तुम्हारा भाई भी उसी घटमें है। इसी प्रकार घटका परिवार बहुत बड़ा है। अभी तुम्हारा नाम लेकर पुकारा गया है, इसका इतना ही अर्थ है कि इस समय तुमसे काम है, तुम्हारा प्रयोजन है, तुम्हारी विवक्षा है । अतः इस समय तुम मुख्य हो । पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि तुम अपने समानाधिकारी भाइयोंके सद्भावको भी नष्ट करनेका दुष्प्रयास करो। वास्तविक बात तो यह है कि यदि 'पर' की अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस घड़े में तुम रहते हो वह बड़ा बड़ा होन रहेगा कपड़ा आदि पररूप हो जायगा । अत: जैसी तुम्हारी स्थिति है वैसी ही पररूपकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्मकी भी स्थिति है तुम उनकी हिंसा न कर सको इसके लिए अहिंसाका प्रतीक 'स्यात्' शब्द तुमसे पहिले ही वाक्यमें लगा दिया जाता है । भाई अस्ति, यह तुम्हारा दोष नहीं है। तुम तो बराबर अपने नास्ति आदि अनन्त भाइयोंको वस्तुमें रहने देते हो और बड़े प्रेमसे सबके सब अनन्त घर्मभाई हिलमिलकर रहते हो पर इन वस्तुदर्शियोंकी दृष्टिको क्या कहा जाय ! इनकी दृष्टि ही एकांगी है । ये शब्द के द्वारा तुमसे किसी एक 'अस्ति' आदिको मुख्य करके उसकी स्थिति इतनी अहंकारपूर्ण कर देना चाहते हैं जिससे यह 'अस्ति' अन्यका निराकरण करने लग जाय । यस 'स्यात्' शब्द एक अजन है जो उनकी दृष्टिको विकृत नहीं होने देता और उसे निर्मल तथा पूर्णवश बनाता है। इस अविवक्षितसंरक्षक, दृष्टिविषहारी, शब्दको सुधारूप बनानेवाले, सचेतक प्रहरी, अहिंसक भावनाके प्रतीक, जीवम्ल न्यायरूप सुनिश्चित अपेक्षाद्योतक 'स्मात्' शब्दके स्वरूप के साथ हमारे दार्शनिकोंने न्याय तो किया ही नहीं किन्तु उसके स्वरूपका शायद, संभव है, 'कदाचित्' जैसे भ्रष्ट पर्याय विकृत करनेका दुष्ट प्रयत्न अवश्य किया है तथा अभी भी किया जा रहा है। सबसे शेषा तर्क तो यह दिया जाता है कि- 'महा जब अस्ति हूं तो नास्ति कैसे हो सकता है, घड़ा जब एक है तो अनेक कैसे हो सकता है, यह तो प्रत्यक्ष विरोध है पर विचार तो करो बड़ा पड़ा बड़ा घड़ा ही है, कपड़ा नहीं, कुरसी नहीं, टेबिल नहीं, गाय नहीं, घोड़ा नहीं तात्पर्य यह कि वह घटभिन्न अनन्त पदार्थरूप नहीं है। तो यह कहने में आपको क्यों संकोच होता है कि घड़ा अपने स्वरूप अस्ति हैं, भिन्न पररूपोंसे नास्ति हैं। इस घड़े में अनन्त पररूपोंकी अपेक्षा 'नास्तित्व' धर्म है, नहीं तो after कोई शक्ति घड़ेको कपड़ा आदि बनने से रोक नहीं सकती थी। यह 'नास्ति धर्म ही घड़ेको घड़े रूपमें कायम रखनेका हेतु है। इसी नारित धर्मकी सूचना 'अस्ति के प्रयोग के समय 'स्वात्' शब्द दे देता है। इसी तरह बड़ा एक है। पर बड़ी घड़ा रूप रस गन्ध स्पर्श छोटा बड़ा हलका भारी आदि अनन्त शक्तियोंकी दृष्टिसे अनेक रूपमें दिलाई देता है या नहीं ? रूप में दिखाई देता है तो आपको यह कहने में क्यों कष्ट होता है कि यह आप स्वयं बतायें। यदि अनेक घड़ा द्रव्य रूपसे एक है, पर अपने मार्गदर्शक :- आचार्य श्री
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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