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________________ तत्त्वार्थवत्ति माग नीम, जाट जलाम', नेज सेज में, थाय वायुमें और इंडिया आवागमं लीन हो जाती है। लोग मरे । मन्थ्यका वाटपर रखकर जाते है, उसकी निन्दा प्रशंमा करले। हटियां उजली हो त्रिखा जहली ही गय कुछ भस्म हो जाना है। मख लोगजी दान देने हैं, उनका कोई फल नहीं होता । आस्तिकपाद ज्ञठा हूँ । मर्ख और पनि सभी गरीरके नष्ट होते ही उच्छरको प्राप्त हो जाने हैं। मरने के बाद कोई नहीं रहता।" ET च्छद या गो-FITNI था । १२; मातलिगोशाला मन--"मत्त्वांक ऋलेशा कोई हल नहीं है.प्रत्यय नहीं है। बिना हनने और बिना प्रत्ययके ही मानलेश पाते हैं। सत्ता की गायिका कोई वेतु नहीं है. कोई प्रत्यय नहीं है । बिना इनके और विना प्रत्ययक पस्य शुद्ध होते हैं। अपने कुछ नहीं कर सकते हैं. गगये भी कुछ नहीं कर मकने ई, (कोई) पुरुष भी कुछ नहीं कर सकता है , बल नहीं है, वीर्य नहीं है. पृथ्ष का कोई पराक्रम नहीं है। सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी भुत और सभी जीव अपने नाम नहीं है, निबंल, निर्वीय, भाग्य और संयोगके फेरसे छ जातियों में उत्पन्न हो मुनागदेशिनमोओवये प्रामुख्नुधिचिसागहवामहाखिजाम मौ हैं। पांच मी पाच कर्म, तीन अर्ब कर्म ( केवल मनमे शरीरमे नहीं ), बासठ प्रतिपदाएं ( मार्ग ) वासट अन्तरकल्प, अभिजामियाँ, आठ पुरुषभूमियां. उन्नीस सौ आजीनकउनवास मी परित्राजक. म. भास मी नाग-नावास. वीस ही इंद्रियां, नीयमीन हुनौम राधातु, यात संजी ( होशवाले) गर्भ मान असंजी गर्भ, सान निर्गन्ध गर्भ, साद देव, सात मनत्र, सान पिशाच, सात स्वर. सान मो माल गाँट, सात सीमात प्रगात, सात मी सान स्वान, और अस्सी लास टबई कल्प है. जिन्हें पूर्व और पंडित जानकर ओर अनुगमन कर दुःखाका अन कर सकते हैं। वहीं यह नही है-इस शील या त या तप, ब्रह्मचर्यसे में अपरिपक्व कर्मको परिपक्व करूंगा। परिणक्य कर्मको भोगकर अन्त करूंगा। मुख दुःख द्रोण (नाम) से तुले हर है, गंसारमें घटना-बढ़ना उत्कर्ष, अपकर्ष नहीं होता। जैसे कि मूनकी गोली फेंकनेपर उछलती हुई गिरती है, बसे ही मूर्ख और पंडित दौड़कर-आवागमनमें पड़कर, दुखवा अन्त करगे ।" गोशालक पूर्ण भाग्यवादी था । स्वर्ग नरक आदि मानकर भी उनकी प्राप्ति नियत समझता था, के लिए पुरुषार्थ कोई आवश्यक या कार्यकारी मही धा । मनुष्य अपने नियत कार्यक्रमके अनुसार सभी योनियोंम पहुँच जाता है । यह गत पूर्ण नियतिवादका प्रचारक था। (३) पूरण कश्यप--"करते कराते, छंदन करने, छेदन कराले. पकाने पक्वाने, गोव करते, परेशान होत, परेमान करान. वलन चलाते, प्राण मारते, बिना दिये लेल, रोंघ काटते, गांत्र लुटते, चोरी करते, बटमारी करते, परस्त्रीगमन करते, अमोलने भी. पाप नहीं किया जाना । छरे मे तेज चक्र द्वारा जो इस पृथ्वीवे प्राणियोंका (कोई) एक मांसका खलियान, एक मांसका पुज बना दे; तो इसके कारण उसको पाप नहीं, पापका आगम नहीं होगा। यदि घात करते कराते, काटते, कटाते, पकात पकवाते, गंगाके दक्षिण तीरपर भी जाये; तो भी इसके कारण उमको पाप नहीं, पाएका आगम नहीं होगा । दान देते. दान दिलाते, यज्ञ करते, यज्ञ कराते, यदि गंगाके उत्तर तीर भी जाये, तो इसके कारण उसको पुण्य नहीं, पूण्यका आगम नहीं होगा। दान दम संयमसे, सत्य बोलनेसे न पूण्य है,न पुण्यका आगम है।" पूरण कश्यप परलोकम जिनका फल मिलता है ऐसे किमी भी कर्मको गुण्य या पापा नहीं रामझता था। इस तरह पूरण कश्यप पूर्ण अक्रियावादी था। . (४) प्रक्रुध कात्यायनका मत था--'यह मात काय ( समूह ) अकृत-अकृतत्रिय-अनिर्मिन -निर्माणरहित, अबध्य-कूटस्थ स्तम्भवत् (अन्चल) है। यह चल नहीं होते, बिकारको प्राप्त नहीं होते : न एक दूसरेको हानि पहुँचाते हैं न एक दुसरेके सुख, दुख या सुख-दुस्नके लिए पर्याप्त है। कौनमे सात ?
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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