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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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प्रथम अध्याय शास्त्राभ्यासके विना वीतरागकी आज्ञासे ही जो श्रद्धान होता है वह आज्ञासम्यक्त्व है। दशनमोहके उपशम होनेसे शास्त्राभ्यासके बिना ही मोक्षमार्ग में श्रद्धान होना मार्गसम्यक्त्व है। तीर्थकर आदि श्रेष्ठ पुरुषोंके चरित्रश्रयणसे उत्पन्न हुए श्रद्धानको उपदेशसम्यक्त्व कहते हैं। आचारसूत्र को सुननेसे जो श्रद्धान होता है वह सूत्रसम्यक्त्व है। गणितमें बतलाये हुए वीजाक्षरोंके द्वारा करणानुयोगके गहन पदार्थोंका श्रद्धान हो जाना बीजसम्यक्त्व है । तत्त्वोंका संक्षिप्त जान होने पर भी तत्त्वोंमें रुचि होना संक्षेपसम्यक्त्व है। द्वादशांगको सुनकर जो श्रदान उत्पन्न होता है उसको विस्तारसम्यक्त्व कहते हैं। किसी पदार्थ के देखने या अनुभव करनेसे होनेवाले श्रद्धानका नाम अर्थसम्यक्स्य है। बारह अ
और अन्न बाह्य इस प्रकार सम्पूर्ण श्रुतका पारगामी होनेपर जो श्रद्धान होता है यह अवगाढसम्यक्त्व है। केवलीके केवलज्ञानसे जाने हुए पदार्थों में श्रद्धानका नाम परमावगाढ़सम्यक्त्व है।
सम्यग्दर्शनके प्ररूपक शब्द संख्यात हैं अतः संख्यात भेद भी होते हैं। श्रद्धान करनेवाले और श्रद्धेयके भेदसे असंख्यात और अनन्तभेद भी होते हैं।
प्रश्न-असंख्यात और अनन्तभेद कैसे होते हैं ?
उत्तर-श्रद्धान करनेवालों के असंख्यात और अनन्त भी भेद होते हैं और श्रद्धेय पदार्थके भी उतने ही भेद होते हैं क्योंकि श्रद्धेय पदार्थ श्रद्धाता के विषय होते हैं। अतः विषय और विषयी अथवा श्रद्धाता और अर्द्धय के भेदसे असंख्यात और अनन्त भेद हो सकते हैं। जीवादि पदार्थो के अधिगमके उपायान्तर को बतलाते हैं
सत्सङ्ख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ।। ८ ॥ सत् शब्दके साधु, अर्चित, प्रशस्त, सत्य और अस्तित्व इस प्रकार कई अर्थ हैं। उनमें से यहाँ सत्का अर्थ अस्तित्व है । संख्या भेद को कहते हैं। निवासका नाम क्षेत्र है। वर्तमानकालचर्ती निवासको क्षेत्र कहते हैं। त्रिकालवर्ती क्षेत्रको स्पर्शन कहते है। मुख्य और व्यवहारके भेदसे काल दो प्रकारका है। विरहकालको अन्तर कहते हैं। औपशमिकादि परिणामोंको भाव कहते हैं। एक दूसरेकी अपेक्षा विशेष ज्ञानको अल्प. वहुस्त्र कहते हैं
सूत्रम आया हुआ 'च' शब्द समुच्चयार्थक है, अर्थात् चशब्द का तात्पर्य है कि केवल प्रमाण, नय और निर्देश आदिके द्वारा ही जीव आदिका अधिगम नहीं होता किन्तु सत्संख्या आदिके द्वारा भी अधिगम होता है।
बद्यपि पूर्वसूत्रमै कहे हुए निर्देश शब्दसे सन्का, विधानसे संख्या का, अधिकरणसे क्षेत्र और स्पर्शनका, स्थितिसे कालका ग्रहण हो जाता है। नामादि निक्षेपमें भावका भी प्रण हो चुका है, फिर भी सत् आदिका ग्रहण विस्तृत अभिप्राययाले शिष्योंकी दृष्टि से किया है।
अब जीव इत्यमें सत् आदिका वर्णन करते हैं
जीव चौदह गुणस्थानों में पाये जाते हैं। गुणस्थान इस प्रकार है--५ मिथ्याष्टि २-सासादनसम्यग्दृष्टि ३ सम्यग्मिध्याष्टि४ असंयतसम्यग्दृष्टि ५ देशसंयत ६. प्रमत्तसंयत