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________________ ३३६ सत्त्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार [श जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाका अनुभव है। चतुर्थ नरकसे सप्तम नरकपर्यन्त जातिस्मरण और वेदनाका अनुभव ये दो सम्यग्दर्शनके बाह्य साधन हैं । तिर्यञ्च और मनुष्योंके जातिस्मरण, धर्मश्रषण और वेदनाका अनुभव ये बाह्य साधन हैं। सौधर्म स्वर्ग सहस्रार स्वर्ग पर्यन्तके देवोंके जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनमहिमदर्शन और देवद्धिदर्शन ये चार माधन हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पवासी देवोंके देवर्द्धिदर्शनके विना तीन ही साधन हैं। नवयकवासी देवोंके जातिस्मरण और धर्मश्रवण ये दो ही साधन हैं। प्रश्न-वयकवासी देव अहमिन्द्र होते हैं अतः उनके धर्मश्रवण कैसे हो सकता है ? उत्तर-कोई सम्यन्द्रष्टि जीव तत्त्वचर्चा या शास्त्रका मनन करता है, वहाँ उपस्थित दूसरा जीव उस चर्चासे सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लेना है। अथवा प्रमाण, नय और निक्षेप की अपेक्षा वहाँ तत्त्वचर्चा नहीं होती किन्तु सामान्यरूपसे तत्वविचार तो होता ही है । अनः प्रवेयकम भी धर्मश्रवण संभव है। अनुदिश और अनुत्तरविमानवासी देव सम्यग्दर्शनसहित ही उत्पन्न होते हैं। अधिकरण दो प्रकारका है- अभ्यन्तर और बाय । सम्यग्दर्शनका अभ्यन्तर अधिकरण आत्मा ही है। बाह्य अधिकरण लोकनाड़ी (सनाली) है । जीव, पुद्रल, धर्म, अधर्म, काल और आकाशका अधिकरण निश्चयनयसे स्त्रप्रदेश ही है और व्यवहारनयसे आकाश अधिकरण हे । जीत्रका शरीर और क्षेत्र आदि आधार है। चट पटादि पुदलोंका भूमि आदि आधार है। अपने गुण और पर्यायोंका आधार द्रव्य होता है । स्थितिके दो भेद हैं:- उत्कृष्ट और जघन्य। उपशम सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। शायिक सिम्यग्दर्शनकार्य संसास जिविका पन्चमस्थानमुहर्त है उस्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष और अन्तर्मुहृत कम दो पूर्वकोटि सहित तेतीस सागर है । यह इस प्रकार है- कोई मनुष्य कर्मभूमिमें पुर्वकोटि आयुवाला उत्पन्न हुआ और गर्भमे आठ वर्ष के बाद अन्तर्मुहूर्त में दर्शन मोहका क्षपण करके सम्बष्टि होकर सर्वार्थसिद्धि में ततीय सागरकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ। पूनः पूर्वकोटि आयुवाला मनुष्य होकर कर्मक्षय करके मान प्राप्त कर लेता है। मुक्त जीवकी क्षायिक सम्यग्दर्शनकी स्थिति सादि और अनन्त है। भायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर है। प्रश्न-६६ सागर स्थिति कैसे होती है ? उत्तर-सौधर्म स्वर्गम २ सागर शुक्रमें १६ सागर, शतारमै १८ सागर, और अष्टम वेयकमें ३. सागर इस प्रकार ६६ सागर होते हैं। अथवा सौधर्म स्वर्ग में दो बार उत्पन्न होनेसे ४ सागर, सनत्कुमार में ७ सागर, ब्रह्ममें १० सागर, लान्तबमें १४ सागर और नवम वेयकमें २५ सागर इस प्रकार ६६ सागर होते हैं। स्वोंकी आयके अन्तिम सागरमेंसे मनुष्याय कम कर लेनी चाहिए क्योंकि स्वर्गसे च्युत होकर मनुष्य होता है, पुनः स्वर्ग जाता है । अतः ६६ सागर से अधिक स्थिति नहीं होती। विधान-सामान्यसे सम्यग्दर्शन एक ही है। विशेषसे निसगंज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका है । उपशम, भय और भयोपशमके भेदसे उसके तीन भेद हैं । __आझा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप,विस्तार अर्थ, श्रवगाढ और परमावगाडके भेदसे सम्यग्दर्शन के दश भेद भी होते हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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