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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ५।३१-३३ ] पञ्चम अध्याय ४२९ उत्तर--उत्पाद आदि और द्रव्यमें अभेद होने पर भी कहिचतेद नयकी अपेक्षासे युक्त शरदका प्रयोग किया गया है। यह खंभा सारयुक्त है ऐसा व्यवहार अभेदमें भी देखा जाता है। द्रव्य लक्ष्य है और उत्पाद आदि लक्षण हैं 'अतः लक्ष्यलक्षणभायको दृष्टि में रखने पर पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे द्रव्य और उत्पाद आदि में भर है लेकिन द्रव्याधिकनयकी अपेक्षासे उनमें अभेद है | अथवा यहाँ युक्त शब्द योगार्थक युज् धातुसे नहीं बना है किन्तु युक शब्द समाधि (पकता ) वाचक है। अतः जो उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक हो उसका नाम द्रव्य है। तात्पर्य यह कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य एतत्त्रयात्मक ही द्रव्य है, दोनोंका पृथक् अस्तित्व नहीं है। पर एक अंश है और दूसरा अंशी, एक पर्याएँ हैं तो दूसरा अन्वयी द्रव्य, एक लक्षण हैं तो दूसरा लक्ष्य इत्यादि भेद दृष्टि से उनमें भेद है। निस्यका लक्षण तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ३१ ॥ उस भाव या स्वरूपके प्रत्यभिज्ञानका जो हेतु होता है वह ऋनुस्यूत अंश नित्यत्व है। यह वही है इस प्रकार के ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान बिना हेतुके नहीं हो सकता । अतः तद्भाय प्रत्यभिज्ञानका हेतु है। किसीने पहिले देवदसको बाल्यावस्थामें देखा था। जब वह उसे वृद्धावस्थामें देखता है और पूर्वका स्मरण कर सोचता है कि- यह तो वही देवदत्त है। इससे ज्ञात होता है कि देवदत्त में एक ऐसा तद्भाय ( स्वभावविशेष ) है जो बाल्य और वृद्ध दोनों अवस्थाओं में अन्त्रित रहता है। यदि द्रव्यका अत्यन्त विनाश हो जाय और सर्वथा नूतन पर्यायकी उत्पत्ति हो तो स्मरणका अभाव हो जायगा और स्मरणाभाव होनेसे लोकव्यवहारकी भी निवृत्ति हो जायगी। दृश्यमें नित्यत्व द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे ही है, सर्वथा नहीं। यदि द्रव्य सर्वथा नित्य हो तो आत्मामें संसारकी निवृत्ति के लिए की जाने वाले दीक्षा आदि क्रियाएँ निरर्थक हो जायगी। और आत्माकी मुक्ति भी नहीं हो सकेगी। अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥ ३२॥ मुख्य या प्रधान और गौण या अप्रधान के विवहाभेदसे एक ही द्रव्यमें नित्यत्व, अनित्यस्व आदि अनेक धर्म रहते हैं । वस्तु अनेकधर्मात्मक है। जिस समय जिस धर्मकी विवक्षा होती है उस समय वह धर्म प्रधान हो जाता है और अन्य धर्म गौण हो जाते हैं। एक ही मनुष्य पिता, पुत्र, भ्राता, चाचा आदि अनेक धोको धारण करता है। वह अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है, पिताकी अपेक्षा पुत्र है, भाईकी अपेक्षा भ्राता है। अतः अपेक्षाभेदसे एक ही यस्तुमें अनेक धर्म रहने में कोई विरोध नहीं है। द्रव्य सामान्य अन्वयी अंशसे नित्य है तथा विशेष पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है । इसी तरह भेद-अभेद,अपेक्षितत्व-अनपेक्षितस्व, देव-पुरुषार्थ, पुण्य-पाप आदि अनेकों विरोधी युगल वस्तु में स्थित हैं। वस्तु इन सभी धर्मोका अविरोधी आधार है। परमाणुओंके बन्धका कारण स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥ ३३ ॥ स्निग्ध और रूक्ष गुणके कारण परमाणुगोंका परस्पर में बन्ध होता है। स्निग्ध और रूक्ष गुण वाले दो परमाणुओंके मिलनेसे दूधणुक और तीन परमाणुओंके मिलनेसे ज्यणुककी
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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