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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ ३०१० जघन्थ भोगभूमिमें शरीर की ऊँचाई एक कोश, एकपल्यको आयु और प्रिय के समान श्यामवर्ण शरीर होता है । वहाँ के प्राणी एक दिनके बाद आँवला प्रमाण भोजन करते हैं। आयुके नवमास शेष रहने पर गर्भ से स्त्री पुरुष युगल पैदा होते हैं। नवीन युगल उत्पन्न होते ही पूर्व युगल का छींक और जँभाईसे मरण हो जाता है। उनका शरीर बिजली के समान विघटित हो जाता है। नूतन युगल अपने अँगूठे को घूँसते हुये सात दिन तक सीधे सोता रहता है। पुनः सात दिन तक पृथिवीपर सरकता है। इसके बाद सात दिनतक मधुर वाणी बोलते हुये प्रथिवीपर लड़खड़ाते हुये चलता है। चौथे सप्ताह में अच्छी तरह चलने लगता है। पाँचवें सप्ताह में कला और गुणों को धारण करने के योग्य हो जाता है। छठवें म त होकर भोगोंको भोगने लगता है। और सातवें सप्ताह में सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके योग्य हो जाता है । सब युगल दश कोश ऊँचे दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोगों को भोगते हैं । भांगभूमिके जीव आर्य कहलाते हैं क्योंकि वहाँ पुरुष स्त्रीको आर्या और स्त्री पुरुष को श्रार्य कहकर बुलाती है। ३८४ २. मद्यांग जातिके कल्पवृक्ष मद्यको देते हैं । मचका तात्पर्य शराब या मदिरा से नहीं है किन्तु दूध, दधि घृन, आदिसे बनी हुई सुगन्धित द्रव्यको कामशक्तिजनक होनेसे मद्य कहा गया है. २ वादिना जातिके कल्पवृक्ष मृदंग, मेरी, वीणा आदि नाना प्रकार के बाजों को देते हैं । ३ भूषणाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष हार, मुकुटु कुण्डल आदि नाना प्रकारके आभूषणों को देते हैं । ४ माल्याङ्ग नामके कल्पवृक्ष अशोक, चम्पा, पारिजात आदिके सुगन्धित पुष्प, माला आदि को देते हैं । १५ ज्योतिर जातिके कल्पवृक्ष सूर्यादिकके तेज को भी तिरस्कृत कर देते हैं । ६ दीपराङ्ग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकार के दीपकों को देते हैं जिनके द्वारा लोग अन्दर अन्धकार युक्त स्थानों में प्रकाश करते हैं । ६ गृहात जाति कल्पवृक्ष प्राकार और गोपुर युक्त रत्नमय प्रासादका निर्माण करते हैं । ८ भोजनाङ्ग कल्पवृक्ष छह रस युक्त और अमृतमय दिव्य आहार को देते हैं. । ९. भाजनान जातिके कल्पवृक्ष मणि और सुवर्ण थाली, घड़ा आदि बर्तनों को देते हैं । १० चत्राङ्ग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकारक सुन्दर और सूक्ष्मवस्त्रों को देते हैं । वहीं पर अमृत के समान स्वादयुक्त अत्यन्त कोमल चार अङ्गुल प्रमाण घास होती है जिसकी गायें चरती है | वहां की भूमि पञ्चरत्नमय है। कहीं कहीं पर मणि और सुवर्णमय कीड़ा पर्वत हैं। वापी, सरोवर और नदियों में रत्नों की सीढ़ियों लगी हैं। वहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यख मांस नहीं खाते और न परस्पर में विरोध ही करते हैं। वहीं विकलत्रय नहीं होते हैं। कोमल हृदयवाले, मन्दकषायी, और शीलादिसंयुक्त मनुष्य ऋषियों को आहारदान देनेसे और तिर्यग्व उस आहारकी अनुमोदना करने से भोग भूमि में उत्पन्न होते हैं । सम्बष्ट जीव वहाँ से सरकर सौधर्म- पेशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । महाहिमवान् और निषेध पर्वत तथा पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच में हरि क्षेत्र है । इसके मध्य में वेदाला नामका पटाकार पर्वत है। हरि क्षेत्र में मध्यम भाग भूमिकी रचना है। मध्यम भोगभूमिमं शरीरकी ऊँचाई दो कोश, आयु हो पल्य और वर्ण चन्द्रमा
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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