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________________ ३८३ ३।९-१० ] तृतीय अध्याय जम्बूद्वीपको रचना और विस्तारतन्मध्ये मेरुनाभिधृतो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ॥९॥ उन असंख्यात द्वीप समुद्रोंके बीच में एक लाख योजन विस्तारवाला जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीपके मध्य में मेरु है, अतः मेरुको जम्बूद्वीपकी नाभि कहा गया है । जम्बू द्वीपका आकार गोल है। ___मेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है । वह एक हजार योजन भूमिसे नीचे और ५९ हजार योजन भूमिसे ऊपर है। भूमिपर भद्रशाल वन है। भद्रशाल वनसे पांच सौ योजन ऊपर नन्दनवन है। नन्दनवनसे वेसठ हजार योजन ऊपर सौमनसवन है । सौमनसवन से साढ़े पैतिस हजार योजन ऊपर पाण्डकवन है। मेरु पर्वतकी शिखर चालीस योजन ऊँची है। इस शिखिरकी ऊँचाईका परिमाण पाण्डुकवनके परिमाणके अन्तर्गत ही है। जम्बद्रीपका एक लाख योजन विस्तार कोटक विस्तार सहित है । जम्बू द्वीपका कोट आठ योजन ऊँचा है, मूलमें बारह योजन, मध्यमें आठ योजन और ऊपर भी पाठ योजन विस्तार हैं । उस कोटके दोनों पाश्चों में दो कोश ऊँची रत्नमयी दो वेदी हैं। प्रत्येक वेदीका विस्तार एक योजन एक कोश और एक हजार सात सौ पचास धनुष है। दोनों वेदियों के पोचमें महोक्ष देवोंके अनादिधन प्रासाद हैं जो वृश्न वापी, सरोवर, जिनमन्दिर आदिसे विभूषित हैं । उस कोटके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर चारों दिशाओं में क्रमसे विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामके चार द्वार है। द्वारोंकी ऊँचाई आठ योजन और माविरक्तिधार जमाई द्वालिभिगोगनीप्रसिदार्यसंयुक्त जिनप्रतिमा हैं। जम्बू द्वीपकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोश एक सौ अट्ठाईस धनुप और सादे तेरह अंगुलसे कुछ अधिक है। क्षेत्रोंका वर्णन भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥ १० ॥ जम्बू द्वीपमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये अनादि निधन नामत्राले सात क्षेत्र हैं। हिमवान् पर्वत और पूर्व-दक्षिण-पश्चिम समुद्र के बीच में धनुषक आकारका भरत क्षेत्र है । इसके गङ्गा-सिन्धु नदी और विजयार्द्ध पर्वतके द्वारा यह खण्ड हो गये हैं। भरतक्षेत्रके बीच में पचीस योजन ऊँचा रजतमय विजया_ पर्वत है जिसका विस्तार पचास हजार योजन है। विजयार्द्ध पर्वत पर और पाँच म्लेच्छखण्डों में चौथे कालके आदि और अन्तके समान काल रहता है। इसलिये वहाँपर शरीरकी ऊँचाई उत्कृष्ट पाँच सा धनष और जघन्य सात हाथ है। उत्कृष्ट आय पर्वकोटि और जघन्य एक सौ बीस वर्ष है। विजया पर्वतसे दक्षिण दिशाके बीच में अयोध्या नगरी है। विजयाद्ध पर्वत उत्तरदिशामें और जुद्राहिमवान् पर्वतसे दक्षिण दिशा में गङ्गा-सिन्धु नदियों तथा म्लेच्छखण्डोंक मध्य में एक योजन ऊँचा और पचास योजन लम्बा, जिनालय सहित सुवर्णरनमय वृषभमामका पर्वत है । इस पर्वत पर चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति लिखते हैं। हिमवान् महाहिमवान् पर्वत और पूर्व-पश्चिम समुद्रके मध्यमें हैमवत क्षेत्र है। इसमें जघन्य भोगभूमि की रचना है। हैमवत क्षेत्रके मध्य में गोलाकार, एक हजार योजन ऊँचा, एक योजन लम्बा शब्दवान् पर्वत है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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