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________________ १०] तृतीय अध्याय ३८५ समान होता है। वहाँ के प्राणी दो दिन के बाद विभीतक ( बहेरे) फलके बराबर भोजन करते हैं। कल्पवृक्ष बीस योजन ऊँचे होते हैं । अन्य वर्णन जघन्य भोग भूमिके समान ही है । निवs नील पर्वत तथा पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच में विदेश क्षेत्र है । विदेह क्षेत्रके चार भाग हैं---१ मेरु पर्वत से पूर्व में पूर्व विदेह, २ पश्चिम में अपरविदेह, ३ दक्षिण में देवकुरु ४ और उत्तर में उत्तरकुरु । विदेह क्षेत्रमें कभी जिनधर्मका विनाश नहीं होता है, धर्मकी प्रवृत्ति सदा रहती है और वहाँ से मरकर मनुष्य प्रायः मुक्त हो जाते हैं, अतः इस क्षेत्र का नाम विदेह पड़ा। विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर सदा रहते है । यहाँ भरत और ऐरावत क्षेत्र के समान चौबीस तीर्थंकर होनेका नियम नहीं है। देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्व विदेह और अपर विदेहके कोनेमें गजदन्त नामके चार पर्वत हैं। इनकी लम्बाई तीस हजार दो सौ नव योजन, चौड़ाई पाँच सौ योजन और ऊँचाई चार सौ योजन है। ये गजदन्त मेरुसे निकले हैं। इनमें से दो गजदन्त निषधपर्वत की ओर और दो गजदन्त नील पर्वतकी ओर गये हैं। दक्षिणदिग्वर्ती गजदन्तों के बीच में देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि है । देवकुरुके मध्य में एक शाल्मलि वृक्ष है । उत्तरदिग्वर्ती गजदन्तों के बीच उत्तरकुरु आर्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तर भोगभूमिमें शरीर की ऊँचाई तीन कोस, आयु तीन पल्य और वर्मा उदीयमान सूर्यके समान हैं। वहां के मनुष्य तीन दिनके बाद बेर के बराबर भोजन करते हैं। कल्पवृक्षों की ऊँचाई तीस गव्यूती हैं। मेरुके चारों और भद्रशाल नामका वन है । उस वनसे पूर्व और पश्चिम में निषध और नीलपर्वतसे लगी हुई दो वेदी हैं । पूर्वचिदेह में सीता नदी के होनेसे इसके दो भाग हो गये हैं, उत्तर भाग और दक्षिण भाग । उत्तर भाग में आठ क्षेत्र हैं बेदी और वक्षार पर्वत बीचमें एक क्षेत्र है। वक्षार पर्वत और दो विभङ्ग नदियोंके बीचमें दूसरा क्षेत्र है । विभंग नहीं और बझार पर्वतके मध्य में तीसरा क्षेत्र है। वक्षार पर्वत और दो विभंग नदियोंके बीच में चौथा क्षेत्र है । विभंग नदी और यक्षार पर्यंत पांचवा क्षेत्र है । वक्षार पर्वत और दो विभंग नदियोंके अन्तराल में छठवाँ क्षेत्र है । विभंग नदी और यक्षार पर्वत के बीच में सातवाँ क्षेत्र है। वनार पर्वत और वनवेदिका के मध्य आठवाँ क्षेत्र है ! इस प्रकार चार बार पदतों तीन त्रिभंग नदियों और दो वेदियांके नौ खण्डों से विभक्त होकर आठ क्षेत्र हो जात है । इन आठ क्षेत्रोंक नाम इस प्रकार है -१ कच्छा, २ सुकच्छा, ३ महाकच्छा, ४ कच्छकावती ५ श्रावर्ता ६ लाङ्गलावर्ता ७ पुष्कला और ८ पुष्कलाबती । इन क्षेत्रोंक बीचमें आठ मूल पत्तन हैं-१ क्षेमा, २ क्षेमपुरी, ३ अरिष्टा, ४ अरिष्टपुरी ५ खङ्गा, ६ मा ७ ओषधी और पुण्डरीकिणी । प्रत्येक क्षेत्रक बीचमें गंगा और सिन्धु नामक दो दो नदियाँ हैं जो नील पर्वत से निकली हैं और सीता नदीमें मिल गई है। प्रत्येक क्षेत्र में एक एक विजयाद्ध पर्वत है। प्रत्येक क्षेत्र में विजयार्थ पर्वतसे उत्तरकी ओर और नील पर्वत से दक्षिणक ओर ग्रुपभगरि नामक पर्वत है । इस पर्वत पर चक्रवर्ती अपनी प्रसिद्धि लिखते हैं। आठों ही क्षेत्रों में छह छह खण्ड हैं-गाँच पाँच म्लेच्छ और एक एक आर्य खण्ड | आठों ही आर्यखण्डों में एक एक उपसमुद्र हैं। प्रत्येक क्षेत्र में सीतानदी के अन्तमें व्यन्तरदेव रहते हैं जो चक्रवर्तियों द्वारा वशमें किये जाते हैं। सीता नदी दक्षिण दिशा में भी आठ क्षेत्र हैं, पूर्व दिशा में बनवेदी है, बनबेदी के बाद क्षारपर्वत, विभङ्गानदी, वक्षारपर्वत, विभङ्गानदी, वक्षारपर्वत, विभङ्गानदी, वक्षारपर्वत और बनवेदी ये क्रमसे नौ स्थान हैं। इनके द्वारा विभत हो जानेसे आठ क्षेत्र हो जाते ४५
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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