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________________ [३।११ ३८६ तत्त्वार्थ वृत्ति हिन्दी-सार हैं.-१ वत्सा, २ सुवत्सा, ३ महावस्सा, ४ वत्सकावती, ५ रम्या, ६ रम्यका, ७ रमणीया, ८ मङ्गलावती। इन आठ क्षेत्रोंके मध्यमें आठ मूलपत्तन है-१ सुसीमा, २ कुण्डला, ३ अपराजिता, ४ प्रभकरी, ५ अङ्कवती, ६ पद्मावनी, ७ शुभा, ८ रत्नसंचया । आठौं क्षेत्रों से प्रत्येकमें दो दो गङ्गा-सिन्धु नदियाँ बहती हैं जो निपध पर्वतसे निकली हैं और सीता नदीमें मिल गई है। आठौं क्षेत्रोंके मध्यमें आठ विजयार्द्ध पर्वन भी हैं। उक्त आठ नगरियोसे उत्तरमें सीतानदीके दक्षिण पाश्यों में पाठ उपसमुद्र हैं। निपधपर्वतसे उत्तरमें और विजयार्द्ध पर्वतोंमे दक्षिण में आठ वृषभगिरि हैं जिनपर चक्रवर्ती अपने अपने दिग्विजयके वर्णनको लिखते हैं । आठों क्षेत्र दो खण्डों ( ५ म्लेच्छ और '१ आर्य } से शोभायमान हैं। सीता नदोमै मागधवरतनुप्रभास नामक व्यन्तरदव रहते हैं। सीतोदा नदी अपविदेहके बीचसे निकलकर पश्चिम समुद्र में मिली है। उसके द्वारा दो विदेह हो गये हैं-दक्षिणविदेह और उत्तर विदह । उत्तर विदेहका वर्णन पूर्व विदेहके समान ही है। सीतोदा नदीके दक्षिण तटपर जो क्षेत्र हैं उनके नाम- पद्मा, २ सुपद्मा, ३ महापद्या, ४ पद्मकावती, ५ शङ्खा, ६ नलिना, ७ कुमुदा, ८. सरिता । इन क्षेत्रों के मध्यूकी आ.मल नगरियाक नाम-५ अश्वपुरी,२ सिंहपुरी, ३ महापुरी, मार्गदविजयापुराव अरजाशिवरजी शाका, ८ बीतशोका । सीतोदा नदीके उत्तर तट पर जा आठ क्षेत्र हैं उनके नाम- यमा, २ सुवा, ३ महावना, ६ वप्रकावती, गन्धा, ६ सुगन्धा, ७ गन्धिला, ८ गन्धमादिनी। इन क्षेत्रोंसम्बन्धी आठ मुलनारयोंके नाम-१ विजया, वैजयन्ती, ३ जयन्ती, ४ अपराजिता, ५ चक्रा, ६ खङ्गा, ७ अयोध्या, ८ अनध्या । क्षेत्र और पश्चिम समुद्र की वेदीक मध्यमें भूनारण्य वन है। नील और रुक्मि पर्वत तथा पूर्व और पश्रिम समुद्रक बीचमें रम्यक क्षेत्र है । रम्यक क्षेत्रमें मध्यम भांगभूमिकी रचना है। इसका वर्णन हरि क्षेत्रके समान है। रम्यक क्षेत्रके मध्यमें गन्धवान् पर्वत है। ___रुकिम और शिखरिपर्वत तथा पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच में हरण्यवत क्षेत्र है। इस क्षेत्रमें जघन्य भोगभूमिकी रचना है । इसका वर्णन हैमवत क्षेत्रके समान है। हरण्यवत क्षेत्रके मध्य में माल्यवान् पर्वत है। शिखरिपर्वत और पूर्व, अपर, उत्तर समुद्र के श्रीचमें एरावत क्षेत्र है । ऐरावत क्षेत्रका वर्णन भरत क्षेत्रके समान है। पाँचों मेरु सम्बन्धी ५ भरत, ५ऐरावत और विदेह इस प्रकार १५ कर्मभूमियाँ हैं। ___५ हेमवत, ५ हरि, ५ रम्यक, ५ हैरण्यवत, ५ देवकुरु और ५ उत्तरकुरु इस प्रकार ३० भोगभूमियाँ हैं। विकलत्रयजीव कर्मभूमि में ही होते हैं। हेकिन समवसरणमें नहीं होते हैं। कम भूमिसे अतिरिक्त मनुष्यलोकमें, पाताललोकमें ओर स्वों में भी चिकलत्रय नहीं होते हैं। क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले पर्वतोंक नामतद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवननिषधनीलरुक्मिशिखरिणो ___ वर्षधरपर्वताः ।। ११ ॥ भरत आदि सात क्षेत्रांका यिभान करनेवाल, पूर्वस पश्चिम तक लम्बे हिमवान् , महाहिमवान् , निषध, नील, क्मि आर शिखरी ये अनादिनिधननामवाले छह पर्वत हैं। भरत और एरावत क्षेत्रकी सोमापर सो योजन ऊँचा और पच्चीस योजन भूमिगत
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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