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________________ 416-3] नवम अध्याय परीषद्दका वन मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ॥ ८ ॥ मार्ग अर्थात संवरसे च्युत न होनेके लिये और कर्मोकी निर्जरा के लिये बाईस परी हों को सहन करना चाहिये । मार्गका अर्थ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र भी होता है। परीषहों के सर्भादर्शराने से काकार्यसंत्री सुविधिसागर री महक संबर. निर्जरा और मोक्षका साधन है। क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशक नाग्न्यारतिखी चयनिषद्या शय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाञ्ज्ञानादर्शनानि ।। ९ ।। ४८० क्षुधा तृपा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार - पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परोप है । १ क्षुधा परी पह-- जो मुनि निर्दोष आहारको ग्रहण करता है और निर्दोष आहार के न मिलने पर या अल्प आहार मिलनेपर अकाल और अयोग्य देशमें आहारको ग्रहण नहीं करता है, जो छह आवश्यकों को हानिको नहीं चाहता, अनेक बार अनशन, अवसौदर्य आदि करने से तथा नीरस भोजन करनेसे जिसका शरीर सूख गया है तुधाकी वेदना होने पर भी जो वाकी चिन्ता नहीं करता है और भिक्षाके लाभकी अपेक्षा अलाभमं लाभ मानता है. उस मुनिके क्षुधापरीपहजय होता है । २ नृपापरीपह - जो मुनि नदी, बापो, तड़ाग आदिके जलमें नहाने आदिका त्यागी होता है और जिसका स्थान नियत नहीं होता है, जो अत्यन्त क्षार (खारा) आदि भोजन द्वारा और गर्मी तथा उपवास आदिके द्वारा सात्र व्यासके लगने पर उसका प्रतिकार नहीं करना और कृपाको संतोषरूपी जलसे शान्त करता है उसके नृपापरीषहजय होता है । - के ३ शीतपरीग्रह - जिस मुनिने बस्त्रोंका त्याग कर दिया है, जिसका कोई नियत स्थान नहीं है. जो वृक्षांक नीचे पर्वतों पर और चतुष्पथ आदि में सदा निवास करता है, जो वायु और हिमकी ठंडकको शान्तिपूर्वकं सहन करता है, शीतका प्रतिकार करनेवाली अग्नि आदिका स्मरण भी नहीं करता है, इस गुनिके शीत परीषहजय होता हूँ । * उष्णपरी - जो मुनि वायु और जल रहित प्रदेशमें, पत्तों से रहित सूरं वृक्ष के नीचे या पर्वतों पर ग्रीष्म ऋतु ध्यान करता है, दावान के समान गर्म बायुसे जिसका कण्ठ सूख गया है और पित्तके द्वारा जिसके अन्तरङ्गमें भी दाइ उत्पन्न हो रहा है फिर भी उता प्रतिकार करनेका विचार न करके उष्णताकी वेदनाको शान्तिपूर्वक सहन करता है. उसके उष्णजय होता है । १९. दंशमशकपरीपत्– जो डांस, मच्छर, चींटी, मक्खी, बिच्छू आदिके काटने से उत्पन्न हुई वेदनाको शान्तिपूर्वक सहन करता है उसके दंशमशकपरीषहजय होता है । यहाँ शब्द महण ही काम चल जाता फिर भी जो मशक शरदका ग्रहण किया गया है वह उपलक्षण के लिये है । जहाँ किसी एक पदार्थ के कहने से तत्सदृश अन्य पदार्थों का भी मह वहाँ उपलक्षण होता है। जैसे किसीने कहा कि "काकेभ्यो वृतं रक्षणीयम्" फांसे घृतकी रक्षा करनी चाहिये तो इसका यह अर्थ नहीं है कि बिल्ली आदिसे घृतकी रक्षा नहीं करनी चाहिये ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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