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________________ तार्थवृत्ति हिन्दी-सार [9,115 ८ र भावना - कर्मका संवर हो जानेसे जीवको दुःख नहीं होता है। जैसे नाव छेद हो जाने पर उसमें जल भरने लगता है और नाव डूब जाती है। लेकिन छेत्रको बन्द कर देने पर नाव अपने स्थान पर पहुँच जाती है। उसी प्रकार कमका श्यागमन रोक देने पर कल्याण मार्गमं कोई बाधा नहीं आ सकती है इस प्रकार विचार करना नवरानुप्रेक्षा है । १८६ ९. निर्जरा भावना-निर्जरा दो प्रकार से होती है एक बुद्धिपूर्वक और दूसरी कुशलमूलक | नरकादि गतियों में फळ हे चुकने पर कर्मोकी जा निर्जरा होती हैं वह अबुद्धिपूर्वक या अकुशलमूलक निर्जर है। जोत या परीपहजयके द्वारा कमकी निर्जरा होती है वह अबुद्धिपूर्वक या कुशलमूलक निर्जरा है। इस प्रकार निजशक गुण और दापका विचार करना निजरानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करनेसे जीवको कर्मकी निर्जराके लिये प्रवृत्ति होती है। १० लोकभावना- अनन्त लोकाकाश के ठीक मध्य में चौदह राजू प्रमाण लोक है। इस लोकके स्वभाव, आकार आदिका चिंतंत्रन करना लाकानुप्रेक्षा है। लोकका विचार करने तक्षा में विशुद्धि होती है । १४ बोधिदुर्लभ भावना एकदिन के सीओ सुधाचे समर महाराज समस्त लोक स्वायर आमित्रों ठसाठस भरा हुआ है। इस लोकनेत्रस पर्याय पाना अस प्रकार दुर्लभ है जिन अफर समुद्र में गिरी हुई वका कणिकाकी पाना। बस भी पच न्द्रिय होना उसी प्रकार टुलभ है जिस प्रकार गुणों में कृतज्ञनाका होना । न्द्रियों में भी मनुष्य पर्यावको पाना उसीप्रकार दर्लभ है जिसप्रकार भार्गम रत्नांका दूर पाना। एक वार मनुष्य पर्याय समान हो जाने पर पुनः मनुष्य को पाना अत्यन्त दुर्लभ है जिस प्रकार वृक्ष के जल जाने पर उस का वृक्ष हो जाना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य जन्म मिल जाने पर भी सुदृशका पाना दुर्लभ है। इसी प्रकार उत्तम कुल इन्द्रियोंकी पूर्णता, सम्पि आरोग्यता ये सब बातें उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सवर्क मिल जाने पर भी बाद जन धमकी प्राप्ति नहीं हुई तो मनुष्य जन्मका पाना उसी प्रकार निरर्थक है जैसे विना नेत्रोंके मुका होना। जो जैन धर्मको प्राप्त करके भी विषय सुखों में लीन रहता है ब्रह्म पुरुष राख के लिए चन्दन वृक्षको जलाता है। विपय-सुखसे विरक्त हो जाने पर भी समाधिका होना अत्यन्त दुर्लभ है। साहाने पर ही विषय सुखमे विरक्त स्वरूप बाधियम सफेद होता है. इस प्रकार अधि (ज्ञान) की दुलेमता का विचार करना यधि मुलभानुमेया है। ऐसा विचार करने से जीवको प्रभाव नहीं माना। ㄓ 1 १२. धर्मभावना - धर्म वह है जो सर्वज्ञ करने वाला हो, सत्ययुक्त हो. विनयसम्पन्न हो. हो जिसके सेवन से विषयोंसे व्यावृत्ति हो और पाने के कारण जीव अनादिकाल तक संसारमें भ्रमण करते हैं और धर्मकी प्राप्ति हो जाने परी आदि का भोगकर समाप्त करते हैं। इस प्रकार धर्मके स्वरूपका विचार करना धर्मानुपेक्षा है ! इस प्रकार विचार करनेले जीवका धर्म में गाढ़ नेह होता है। इस प्रकार बारह भावनाओं के होने पर जीव उत्तम क्षमा यदि धर्मका धारण करता है और परोपों का सहन करता है अतः धर्म और परोपहीक बीचमं अनुप्रेक्षाओंका घन किया है। वीतराग द्वारा प्रणीत हो, सर्व जीवों पर दया उत्तम क्षमा, ब्रह्मचर्य, उपशम आदि साहित निरिहता हो। इस प्रकार के धर्मको न
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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