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तस्वार्थवृत्ति प्रस्तावना
था उन्हीं शरीराश्रित सार्थक आदिके मम श्रीचिपटाया जा रहा है | इसतरह जबतक हमें सम्यग्दर्शनका ही सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होगा तबतक न जाने क्या क्या अलाय बलाय उसके पत्र नामसे मानवजानिका पतन करती रहेगी । अतः आत्मस्वरूप और आत्माधिकारकी मर्यादाको पोषण करने वालो धारा ही सम्यग्दर्शन है अन्य नहीं। यही धर्म है |
दो मिथ्यादर्शन- मैंने आगे 'संस्कृतिके सम्यग्दर्शन' प्रकरण में लिखा है कि-गर्भस्य बालकके ९० प्रतिशत संस्कार मां वाके रजोवीर्य के परिपाकानुसार होते हैं और १० प्रतिशत संस्कार जन्मान्तरसे आते है। उन १० प्रतिशत में भी जो मन्द संस्कार होंगे वे इथरकी समग्री से प्रभावित होकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देते हैं । अतः जिन संस्कारोम बालककी अपनी बुद्धि कोई कार्य नहीं कर सकती वे सब मां बाप और समाजव्यवस्थाकी देन हैं अर्थात् अगृहीत संस्कार हैं। जिन संस्कारोंको या विचारोंको बालक स्वयं शिक्षा उपदेश श्रादिसे बुद्धिपूर्वक ग्रहण करता है वे गृहीत संस्कार हैं। अब विचारिए कि १८ या २० वर्षको उमर तक, जबतक बालक शिष्य है तबतक मां बाप, समाजके बड़ेबूढ़े धर्मगुरु, धर्मप्रचारक, शिक्षक सभी उस मोमको अपने सांचे में ढालने का प्रयत्न करते हैं। बालक सफेद कोरा कागज है। ये सब मां-बाप, शिक्षक और समाज आदि उस कोरे कागजपर अपने संस्कारानुसार काले लाल पीले धब्बे प्रतिक्षण लगाते रहते हैं और उसकी स्वरूपभूत सफेदीको रंचमात्र भी अवशिष्ट नहीं रहने देना चाहते। जब वह बालिग होता है और अपने स्वरूपदर्शनका प्रयत्न करता है तो अपने मनरूपी कागजको पंचरंगा पाता है. दूसरे रंग तो नाममात्रको हैं काला ही काला रंग है । सारा जीवन उन धब्बों को साफ करनेमें ही बीत जाता | सारांश यह कि यह अगृहीत मिध्यात्व जो मां बाप शिक्षक समाजव्यवस्था आदि कच्ची उमर में प्राप्त होता है दुनिवार है । गृहीत- मिध्यात्वकरे तो जिसे कि वह पूर्व स्वीकार करता है बुद्धिपूर्वक तुरंत छोड़ भी सकता है। अतः पहिली आवश्यकता है- माँ बाप समाज और शिक्षकवर्गको सम्यष्टा बनानेकी । अन्यथा ये स्वयं तो मिथ्यादृष्टि बने ही हैं पर आगेकी नवतीको भी अपने काले विचारोंसे दूषित करते रहेंगे ।
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जिस प्रकार मिथ्यादर्शन दो प्रकारको है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके भी निसगंज-अर्थात् बुद्धिपूर्वक प्रयत्न विना अनायास प्राप्त होनेवाला और अधिगमज अर्थात् बुद्धिपूर्वक परोपदेश से सीखा हुआ, एस प्रकार दो भेद है। जन्मान्तर से आयें हुए सम्यग्दर्शन संस्कारका निसर्गजमें ही समावेश है अतः जबतक मां बाप. शिक्षक, समाजके नेता, धर्मगुरु और धर्मप्रचारक आदिको सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन न होगा तबतक ये अनेक निरर्थक क्रियाकाण्डों और विचारशून्य रूवियोंकी शराब धर्म और सम्यग्दर्शन के नामपर नूतनपोढ़ीको पिलाते जायेंगे और निसर्गमिध्यादृष्टियोंकी सृष्टि करते जायंगे । अतः नई पीढ़ी के सुधारकेलिए व्यक्तिको सम्यग्दर्शन प्राप्त करना होगा। हमें उस मूलभूत तत्त्व - आत्मस्वरूप और आत्माfrerent इन नेताओं को समझाना होगा और इनसे करबद्ध प्रार्थना करनी होगी कि इन कच्चे बच्चोंपर
करो, इन्हें सम्यग्दर्शन और धर्मके नामपर बाह्यगत उच्चत्वनीचत्व शरीराश्रित पिण्डशुद्धि आदिमं न उलझा, थोड़ा थोड़ा आत्मदर्शन करने दो। परम्परागत रूढ़ियोंको धर्मका जामा मत पहिनाओ । बुद्धि और विवेकको जाग्रत होने दो। श्रद्धाके नामपर बुद्धि और विवेककी ज्योतिको मत बुझायो । अपनी प्रतिष्ठा स्थिर रखनेकेलिए नई पीढ़ी के विकासको मत रोको स्वयं समझो जिससे तुम्हारे संपर्क में आने वाले लोगोमं समझदारो आवे | रुचिका आम्नाय परम्परा आदिके नामपर आंख मूंदकर अनुसरण न करो। तुम्हारा यह पाप नई पीढ़ीको भोगना पड़ेगा । भारतकी परतन्त्रता हमारे पूर्वजोंकी ही गलती या संकुचित दृष्टिका परिणाम थी, और आज जो स्वतंत्रता मिली वह गान्बीयुगके सम्यग्रष्टानोंके पुरुषार्थका फल है। इस विचारधाराको प्राचीनता, हिन्दुत्व, धर्म और संस्कृतिके नामपर फिर तमः छन मत करो । सारांश यह कि आत्मस्वरूप और आत्माधिकारके पोषक उपहक परिवर्धक और संशोधक कर्त्तव्योंका प्रचार करो जिसमे सम्यग्दर्शनकी परम्परा चले। व्यक्तिका पाप व्यक्तिको तो भोगना ही