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माग
श्रुतसागर सरि
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जो अपवाद बेषकी व्याख्या की है, वह यही बतलाती है। वे कहते है कि दिगम्बर मुनि घर्याके समय चटाई आदिसे अपने मग्नत्वको ढांक लेता है। परन्तु यह उनका खुदका ही अभिप्राय है, मूलका नहीं। इसी तरह तत्त्वाथंटीका (संयमश्रुतप्रतिसेवनादि सूत्रको टीका) में जो दयलिंगी मुनिको कम्बलादि ग्रह्णका विधान' किया है वह भी उन्हींका अभिप्राय है, मूल मन्थकर्ताका नहीं। श्रुतसागरके ग्रन्थ
(१) यशस्तिलकचन्द्रिका-आचार्य सोमदेबके प्रसिद्ध यशस्तिलक चम्पूकी यह टीका है और यसागर प्रेसकी काव्यमालामें प्रकाशित हो चकी है। यह अपूर्ण है। पांचवें आश्वासके थोडेसे अंशकी टीका नहीं है। जान पडता है, यही उनकी अन्तिम रचना है। इसकी प्रतियां अन्य अनेक भण्डारीम उपलब्ध है, परन्तु सभी अपूर्ण है।
(२) तस्वार्थवृत्ति-यह श्रुतसागरटीकाके नामसे अधिक प्रसिद्ध है। इसकी एक प्रति बम्बईके ऐ• पन्नालाल सरस्वतीभवनमें मौजूद है जो वि० सं० १८४२ की लिखी हुई है । श्लोकसंख्या नौ हजार है। इसकी एक भाषावनिका भी हो चुकी है।
(३) तत्त्वत्रयप्रकाशिका-श्री शुभचन्द्राचार्यके ज्ञानाणं व या योगप्रदीपके अन्तर्गत जो गद्यभाग है, यह उसीकी टीका है। इसकी एक प्रति स्व० सेठ माणिकचन्द्रजीके ग्रन्थसंग्रह है।
(४) जिनसहस्रनामीका-यह पं० आशाधरकृत सहस्रनामकी विस्तृत टीका है। इसकी भी एक प्रति उक्स सेठजीके ग्रन्थसंग्रहमें हैं। पं० आशाधरने अपने सहस्रनामकी स्वयं भी एक टीका लिखी है जो उपलब्ध है।
(५) औदार्य चिन्तामणि-यह प्राकृतव्याकरण है और हेमचन्द्र तथा त्रिविक्रमके व्याकरणोंसे बहा है। इसकी प्रति बम्बईके ऐ० पनालाल सरस्वतीभबन में है (४६८ क), जिसकी पत्रसंख्या ५६ है। यह स्वोपजवत्तियुक्त है।
महाभिषेक टीका-पं० आशाधरके नित्यमहोद्योतकी यह टीका है। यह उस समय बनाई गई है जबकि श्रुतसागर देशवती या ब्रह्म
(७) प्रतकथाकोश-इसमें आकाशपञ्चमी, मुकुटसप्तमी, चन्दनषष्ठी, अष्टाह्निका आदि व्रतों की कथायें है। इसकी भी एक प्रति बम्बईके सरस्वतीभवनमें है और यह भी उनकी देशवती या ब्रह्मचारी अवस्थाकी रचना है।
(८) शुगस्कन्धपूजा-यह छोटीसी नौ पत्रोंको पुस्तक है। इसकी भी एक प्रति बंबईके सरस्वतीभवनमें है।
इसके सिवाय श्रुतसागरके और भी कई ग्रन्पोंके" नाम ग्रन्थमूचियोंमें मिलते हैं। परन्तु उनके विषयमें जबतक वे देख न लिये जाय, निश्चय पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता । समय बिचार
इन्होने अपने किसी भी ग्रन्थमें रचनाका समय नहीं दिया है परन्तु यह प्रायः निश्चित है कि ये विक्रमकी १६वीं शताब्दी में हुए हैं। क्योंकि--
* पंपरमानन्दजी ने अपने लेख में सिंधभक्ति टोका सिधनकारक पूजा ईका श्रीपालचरित मशोधर चांन्त चन्यों में भी नाम दिए हैं। इन्होंने इतकथाकोश के अन्तर्गत २४ कधाओं को सतन्त्र अन्ध मानकर अन्य संख्या २६ कर दी है। इसका कारण बताया कि- किं भिन्न भिन्न कथाएं भिन्न भिन्न व्यक्तियों के लिए विभिन्न व्यनियों के भनुरोध में बनाई ई अतः वे सब सतन्त्र ग्रन्थ है। यथा पन्यविधान व्रत कथा इस राठौर वंशी राजाभानुभूपात ( समय वि० स. १५५२ के वाद) राज्य काल में मनिलमण गुरु के उपदेश से रची गई।