________________
तस्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना १-महाभिषेककी टीकाकी जिस प्रतिकी प्रशस्ति आगे दी गई है वह विक्रम संवत् १५८२की लिखी हुई है और वह भट्टारक मल्लिभूषणके उत्तराधिकारी लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मचारी शानसागरके पड़नेके लिये दान की गई है और इन लक्ष्मीचन्द्रका उल्लेख श्रुनसामरने स्वयं अपने टीकाप्रन्योंमें कई
जगह किया है। मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सनिधिसागर जी महाराज.
२- नमिदत्तन श्रीपालचरित्रको रचना वि० सं० १५८५में की थी और वे मल्लिभषणके शिष्य थे। आराधनाकधाकोशकी प्रशस्तिमें उन्होंने मल्लिभूषणका गुरुरूपमें उल्लेख किया है और साथही श्रुतसागरका भी जयकार, किया है, अर्थात् कथाकोशकी रचनाके समय श्रुतसागर मौजूद थे।
३-स्व. बाबा दुलीचन्दजीकी सं० १९५४में लिखी गई ग्रन्थसूची में श्रुतसागरका समय वि० सं० १५५० लिखा हुआ है।
४-षट्प्राभूतटीकामें लोंकागच्छपर तीव्र आक्रमण किये गये हैं और यह गच्छ वि० सं० १५३० के लगभग स्थापित हुआ था। अतएव उससे ये कुछ समय पीछे ही हए होंगे। सम्भव है, ये लोंकाशाहके समकालीन ही हों। प्रन्पप्रशस्तिमा--
श्री विद्यामगिरोईदिगुरोः पावपजभ्रमर।
श्री श्रुतसागर इति वेशवतो तिलकष्टोकते स्मेवम् ।। इति ग्रह्माधीश्रुतसागर कृता महाभिषेक टीका समाप्ता । (२) संवत् १५५२ वर्षे यंत्रमासे शक्लपक्षे पञ्चम्या सियो रयो घोआदिजिनचेस्यालय श्रीमूलसंधे सरस्वतोगन्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्नाचार्यान्वये भट्टारकलीपचनन्दिदेवास्सत्पट्टे भट्टारकीदेवेन्द्रकीतिवास्तपट्टे भट्टारकनोविमानन्धिवेवास्तस्पष्ट भट्टारकनीमहिलभूषभदेवास्तस्पट्टे . भट्टारकोलमोचन्द्रवेवास्तेषां शिष्यवरप्रमोशानसागरपठनार्थ आश्रिीविसलचेली भद्रारकत्रीलक्ष्मीचनरीक्षिता विनयपिया स्वपं लिखित्वा प्रबतं महाभियंकभाष्यम् । शुभं भवत् । कल्याणं भूयात् श्रीरस्तु ॥
-आशापरकृतमहाभिषेकको टीका* (३) इति श्रीपयनन्वि-देवेन्द्रकीति-विद्यानन्दि-मल्लिभूषणाम्नायन भट्टारकभीमल्लिभूषणमुरुपरमाभीष्टा रुनया गुर्जर वंशसिंहासनस्पभट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्त्रकाभिमतेन मालवदेशभट्टारकधोसिंहनविप्रार्भनया यतिथीसिवान्तसागरवपाल्पाकृतिनिमित्तं नवनवतिमहावाविस्थाहावलम्धविजयम तर्क-व्याकरणछन्दोलकारसिवान्तसाहित्याविशास्त्रनिपुणमतिना व्याकरणानेकशास्त्रबुबुना सरित्रीतप्तागरेण विरचितायां यास्तिलकचनिकाभिषानायां यशोधरमहाराजचरितचम्पूमहाकाव्यटीकायर्या यशोधरमहाराजराजलक्ष्मीविनोदवर्णनं नाम ततीयावासचन्द्रिका प्ररिसमाप्ता।
- यशस्तिलकटीका tी भट्टारक मल्लिभूघागुरुभूयत्सतां शर्मणे ।।६।। + जीयान्मे सूरिवर्यो प्रतिनिचयलसत्पुण्यामायः भूताधिः ॥७॥
६ प. परमानन्दजी शास्त्री सरसावा ने अपने 'महायुत सागर और उनका साहित्य लेख में लिखा कि-भट्टारक विद्यानन्दी के वि० सं० १४९१ से वि. १५२६ तक के ऐसे मूर्ति लेख पाण जाते हैं जिनकी प्रतिमा विद्यानन्दी ने स्वयं को है अथवा बिन आ० विद्यानन्दी के पदेश से प्रतिष्ठित होने का समुल्लेख पाया जाता है। आदि । श्रीमान प्रेमीजी की सूचनानुसार मैने मूर्ति पलों की खोज की तो माहरजी कृत जैनलेखसंह लेख नं.१८.में संवत् १५३३ में विभानन्दि भदटारक का उल्लेख तथा लेख० २८६ में सवत् १५३५ में विधानन्दि गुरु का उल्लेख है। इसी तरह दानवार माणिकचन्द' पुस्तक प.४ पर एक धातु की प्रतिमा का लेन सं० १४२९ का है जिसमें विद्यानन्दि गुरु का उल्लेख है। यदि यह संवत् ठीक है तो मदशरक विधानन्दि का समय १४२९ से १५३४ तक मानना होगा और इनमें शिन्य श्रुत सागर का समय भी १६ वी सदी।
• घ.सेठ माणिक चन्द्रजी पं.बरी के भण्डार की प्रति ।