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________________ तृतीय अध्याय म हैमयत क्षेत्रका विस्तार दूना है। यही क्रम विदेह क्षेत्र पर्यन्त है। विदेह क्षेत्रके विस्तारसे नील पर्वतका विस्तार आधा है, नील पर्वत के विस्तारसे रम्यक क्षेत्रका विस्तार आधा है। यह क्रम ऐरावत क्षेत्र पर्यन्त है। उसरा दक्षिणतुल्याः ॥ २६॥ उत्तर के क्षेत्र औलामका विस्तुमानाक्षिणाओवाहासागऔंसी विस्तारके समान है । अर्थात् रम्यक, हेरण्यवत और ऐरावत क्षेत्रोंका विस्तार क्रमसे हरि, हैमवत और भरतक्षेत्रके विस्तार के समान है । नील, काम और शिखरो पर्वतोंका विस्तार क्रमसे निपध, महाहिमवान् और हिमवान् पर्वतोंक विस्तारके बराबर है । भरत और एरावत क्षेत्रमें कालका परिवर्तनभरतैरावतयोधिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ।। २७ ॥ भरन और रावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छह समयों द्वारा जीवोंकी आयु, काय, सुख, आदिकी वृद्धि और हानि होती रहती है । क्षेत्रोंकी हानि वृद्धि नहीं होती । कोई आचार्य 'भरतरावतयोः पद में पाही विचन न मानकर सप्तमोका दियचन मानते हैं । उनके मतसे भी उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल के द्वारा भरत और परावत क्षेत्र की वृद्धि और हानि नहीं होती किन्तु मरत और रावत क्षेत्र में रहनेवाले मनुष्योंकी आयउपभोग आदिकी वृद्धि और हानि होती है। उत्तपिणी कालमें आयु अर उपभोग आदिकी वृद्धि और अवपिणी कालमें हानि होती है। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह छह भेद है । अवसर्पिणी कालके छह भेद१ सुषमसुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमदुषमा, ४ दुःषमसुषमा, ५ दुःषमा, ६ अतिदुःषमा । उत्सर्पिणी कालके छह भेद--१ अतिदुःपमा, २ दुषमा, ३ दुःपमसुषमा, ४ सुषमदुःपमा, ५ सुषमा, ६ सुषमसुषमा । यद्यपि वनमानमें अवपिणी काल होनेसे सूत्रमें अवसर्पिणीका ग्रहण पहिले होना चाहिये लेकिन उत्सर्पिणी शब्दको अल्प स्वरवाला होनेसे पहिले कहा है। सुषमसुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमा तीन कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमदुःपमा यो कोडाकोड़ी सागर, दु:पमसुषमा व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागर, दुःषमा इसकीस हजार वर्ष और अतिदुःपमा इक्कीस हजार वर्षका है। अवसर्पिणीके प्रथम कालमें उत्तम भोगभूमिकी, द्वितीय कालमें मध्यम भोगभूमिकी और तृतीय कालमें जघन्य भागभूमिको रचना होती है। तृतीय कालमें पत्यके आठवें भाग बाकी रहनेपर सोलह कुलकर उत्पन्न होते हैं। पन्द्रह कुलकरोंकी मृत्यु तृतीय काल में ही हा जाती है लेकिन सोलहवें कुलकरकी मृत्यु चौथे कालमें होती है। प्रथम कुलकरकी आयु पल्यके दशम भाग प्रमाण है। ज्योतिरङ्ग कल्पवृक्षोंकी ज्योति के मन्द हो जाने के कारण चन्द्र और सूर्यके दर्शनसे मनुष्योंको भयभीत होनेपर प्रथम कुलकर उनके भयका निवारण करता है। द्वितीय कुलकरकी आयु पल्यके सौ भागों में से एक भाग प्रमाण है। द्वितीय कुलकरके समय में ताराओंको देखकर भी लोग डरने लगते है अतः वह उनके भयको दूर करता है। तृतीय कुलकरको आयु पल्यके हजार भागों में से एक भाग प्रमाण है । वह सिंह. व्याघ्र आदि हिंसक जीवोसे उत्पन्न भयका परिहार करता है। चतुर्थ कुलकरकी आयु पल्बके दश हजार भागों में से एक भाग प्रमाण है। यह
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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