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________________ तत्रार्थवृत्ति - हिन्दी-सार [ ५१८ करना धर्म द्रव्यका उपकार और पुद्गलोंको ठहरने में सहायता देना अधर्म द्रव्यका उपकार है ऐसा विपरीत अर्थ भी हो जाता । अतः इस भ्रमको दूर करनेके लिये सूत्रमें उपग्रह शब्दका होना आवश्यक है । प्रश्न-- धर्म और अधर्मं द्रव्यका जो उपकार बतलाया है वह आकाशका ही उपकार है क्योंकि आकाशमें ही गति और स्थिति होती है । उत्तर—आकाश द्रव्यका उपकार द्रव्योंको अवकाश देना है। इसलिये गति और स्थितिको श्राकाशका उपकार मानना ठीक नहीं है। एक द्रव्यके अनेक प्रयोजन मानकर यदि धर्म और अधर्म द्रव्यका अस्तित्व स्वीकार न किया जाय तो लोक और अलोकका विभाग नही हो सकेगा। इन्हीं दो द्रव्यों के कारण ही यह विभाग बन पाता है । प्रदर्शक और चावी हारादिसे ही सिद्ध हो जाता है इसलिये इनके मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। उत्तर - पृथिवी, जल आदि गति और स्थितिके विशेष कारण हैं। लेकिन इनका कोई साधारण कारण भी होना चाहिये। इसलिये धर्म और अधर्मं द्रव्यका मानना आवश्यक है क्योंकि ये गति और स्थिति में सामान्य कारण होते हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति में प्रेरक नहीं होते किन्तु सहायक मात्र होते है अतः ये परस्पर में गति और स्थितिका प्रतिबन्ध नहीं कर सकते । प्रश्न- धर्म और अधर्म द्रव्यकी सत्ता नहीं है क्योंकि इनकी उपलब्ध नहीं होती है। उत्तर- ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिस वस्तुकी प्रत्यक्ष उपलधि हो वही वस्तु सन् मानी जाय । सब मतावलम्बी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के पदार्थों को मानते हैं । धर्म अधर्म द्रव्य अतीन्द्रिय होनेसे यद्यपि हम लोगोंका प्रत्यक्ष नहीं होते हैं लेकिन सर्वज्ञ तो इनका प्रत्यक्ष करते ही हैं। श्रुतज्ञानसे भी धर्म और अधर्म द्रव्यकी उपलब्धि होती है । आकाशका उपकार - आकाशस्यावगाहः ।। १८ ।। समस्त द्रव्यों को अवकाश देना आकाशका उपकार है। प्रश्न- क्रियावाले जोव और पुद्गलोंको अवकाश देना तो ठीक है लेकिन निष्क्रिय धर्मादि द्रव्यों को अवकाश देना तो संभव नहीं है । उत्तरपद्यपि धर्म आदि में अवगाहन किया नहीं होती है लेकिन उपचारसे वे भी अवगाही कहे जाते हैं । धर्म आदि द्रव्य लोकाकाशमें सर्वत्र व्याप्त है इसलिये व्यवहारनयस इनका अवकाश मानना उचित ही है । I प्रश्न- यदि आकाश में अवकाश देनेकी शक्ति है तो दीवाल में गाय आदिका और पत्थर आदिका भी प्रवेश हो जाना चाहिये । उत्तर-स्थूल होने के कारण उक्त पदार्थ परस्परका प्रतिघात करते हैं। यह आकाश का दोष नहीं हैं किन्तु उन्हीं पदार्थोंका है। सूक्ष्म पदार्थ परस्पर में अवकाश देते हैं इसलिये प्रतिघात नहीं होता। इससे यह भी नहीं समझना चाहिये कि अवकाश देना पदार्थोंका काम है आकाशका नहीं, क्योंकि सब पदार्थों का अवकाश देनेवाला एक साधारण कारण आकाश मानना आवश्यक है । यद्यपि लोकाकाशमें अन्य द्रव्य न होने से आकाशका अवकाशदान लक्षण वहाँ नहीं बनता लेकिन अवकाश देनेका स्वभाव वहाँ भी रहता है इसलिये आलोकाकाश अवकाश न दने पर भी आकाश ही हैं ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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