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पञ्चम अध्याय
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पुद्गल द्रव्यका उपकारशरीवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १९॥ शरीर, बचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये पुद्गल द्रव्यके उपकार हैं।
शरीर विशीर्ण होनेवाले होते हैं । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक,तेजस और फार्मण ये पाँच शरीर पुद्गलसे बनते हैं। प्रात्माके परिणामों के निमित्त से पुद्गल परमाणु कर्मरूप परिणत हो जाते हैं. और कमोसे औदारिक आदि शरीरोंकी उत्पत्ति होती है इसलिये शरीर पौद्गलिक है।
प्रश्न-कार्मण शारीर प्याक होनेसे पालक अनिशिसकताजी महाराज
उत्तर-यद्यपि काण शरीर अनाहारक है लेकिन उसका विपाक गुड कांटा आदि मूर्तिमान् द्रव्य के सम्बन्ध होने पर होता है इसलिये कार्मण शरीर भी पौद्गलिक ही है।।
वचन के दो भेद हैं-द्रव्यवचन और भाववचन । वीर्यान्तराय, मति और भुतलानावरणके क्षयोपशम होनेपर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय होनेपर भाववचन होते हैं इसलिये पुद्गलके आश्रित होने से पौद्गलिक है। भाव वचनकी सामर्थ्यसे युक्त आत्माके द्वारा प्रेरित होकर जो पुद्गल परमाणु बचनरूपसे परिणत होते हैं वे द्रव्य वचन हैं। द्रव्य वचन श्रोत्रेन्द्रियके विषय होते हैं।
प्रश्न-वचन अमूर्त हैं अतः जनको पौद्ल क कहना ठीक नहीं है।
उत्तर-वचन श्रमूर्त नहीं है किन्तु मूर्त हैं और इसीलिये पौद्गलिक भी है। शब्दोंका मूर्तिमान् द्रव्यकर्ण के द्वारा ग्रहण होता है, दीवाल आदि मूर्तिमान द्रव्यके द्वारा शब्दका अररोध देखा जाता है, तीन भेरी आदिके शब्दोके द्वारा मन्द मच्छर आदि के शब्दोंका व्याघात होता है, मूर्त वावुके द्वारा भी शब्दका व्याघात होता है। विपरीत वायु चलनेसे शब्द अपने अनुकूल देशमें नहीं पहुंच पाता. इन सब कारणोंसे शब्दमें मूर्तत्व सिद्ध होता है । मूर्त द्रव्यके द्वारा ग्रहण, अवरोध, अभिभव आदि अमूर्त वस्तुमें नहीं हो सकते।
मनके भी दो भेद है द्रव्यमन और भावमन। ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होने पर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदय होने पर गुण और दोषोंके विचार करने में समर्थ आत्माके उपकारक जो पुद्गल मन रूपसे परिणत होते हैं. वे द्रव्यमन हैं। भावमन लब्धि और उपयोगरूप होता है और द्रव्यमनके आश्रित होनेसे पौद्गालक है।
प्रश्न-मन अणुमात्र और रूपादि गुणोंसे रहित एक भिन्न द्रव्य है। उसको पौद्गलिंक कहना ठीक नहीं है।
___ उत्तर – यदि मन अणुमात्र है तो इन्द्रिय और आत्मासे उसका सम्बन्ध है या नहीं ? यदि सम्बन्ध नहीं हैं ; तो वह आत्माका उपकारक नहीं हो सकता | और आत्माके साथ मनका सम्बन्ध है, तो एक देश में ही सम्बन्ध हो सकेगा, तब अन्य देशों में वह उपकारक नहीं हो सकेगा। अदृष्टके कारण अलातचक्रको तरङ् मनका श्रात्माके सत्र प्रदेशों में परिभ्रमण मानना भी ठीक नहीं है ; क्योंकि आत्मा और अदष्ट नैयायिक मतके अनुसार स्वयं क्रिया रहित है अतः वे मनकी क्रियामें भी कारण नहीं हो सकते। क्रियावान् वायु आदिके गुणही अन्यत्र क्रियाहेतु हो सकते हैं।
ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होने पर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदय होने पर शरीर के भीतरसे जो वायु बाहर निकलती है उसको प्राण और जो वायु बाहरसे शरीरके भीतर जाती है उसको अपान कहते है।