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निर्जराका वर्णन
प्रदेशबन्धका स्वरूप
पुण्यकर्मको प्रकृतियों
पापकर्म की प्रकृतियाँ
संवर कमर्शक :
नवम अध्याय
२७५-२७६
२७६-२७७
मिथ्यात्व आदि गुण स्थानोंमें किन किन कर्म प्रकृतियों का संवर होता है गुणस्थानोंका स्वरूप और
स्वरूप
विनयके चार भेद वैयावृत्य के देश व
२७७
२७८
रामय
संबर के कारण
संबर और निर्जग का
कारण तप
गुप्तिका स्वरूप समितिका स्वरूप और भंद २८२-२८४ धर्मके भेद और स्वरूप २८४-२८५ बारह भावनाओंका स्वरूप २८६-२९० परीषद सहन का उपदेश
२९१ के भेद और स्वरूप २९१-९९५ किम गुणस्थान में कितनी परोषह होती हैं किस कर्मके उदयसे कौनसी
परी होती है। जीवक
एक
परी हो सकती है
२९१
चारित्रके भेद और स्वरूप २२९-३००
बाह्यतपके छह भेद
३००-३०१
अंतरंगतपके छह भेद
अन्तरंगतपके प्रभेद
प्रायश्चितके नौ मंद और
एक साथ कितनी
आचार्य श्री सुविधिसागर स्वामी
२८३
२८३
२७९-२८० ४७९-८० । शुक्लध्यानके स्वामी शुक्लध्यानके भेद
२९८-२९९
२८१.२८२ ४८०-८१
२८२
३०१
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विषयसूची
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ܕ ܘ ܕ ܝܐ ܘ ܕ
૩૭
४७८
४७८
२९६-२९८ ४८१-४९१
३०१-३०४
३०४
८८२ |
४८९
ፈረ
४८३
स्वाध्याय के पांच भेद | व्युत्सर्गके दो 'मैद
३०४-३०५ २०५
ध्यानका स्वरूप और समय ३०५ ३०६ ध्यान के भेद
३०६
आत्तंध्यानके भेद और स्वरूप
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३०८
रौद्रयानका स्वरूप और स्वामी ३०८ धर्म्यध्यानका स्वरूप
३०९
३१०
१०
४८३-८४ | ४८४-८६
. किस शुक्लध्यान में कौनसा बोग होता है
४९१
४९९
४९३
४९३
४९४
प्रथम और द्वितीय शुक्लध्यानोंकी विशेषता
वितर्कका लक्षण
वीचारका लक्षण
! निन्य के भेद
४८६ ४८७-८९ । | पुलाक आदि निर्ग्रन्थोंमें परपर भेंदके कारण
सम्यग्वष्टि आदि जीवोमं निर्जराकी विशेषता
|
४०२ | मुक्तजीव किन किन अ
साधारण भावोंका नाश हो जाता है
३१-३११
मुक्त होने के बाद जीव ऊर्ध्व
गमन करता है
६११
३११
३१२-३१३
४९४ ठहर जाता है. ४९५ मुक्तजीवों में परस्पर द व्यबहारके कारण
४९५
३१३-३१४
३१४-३१५
दशम अध्याय केवलज्ञान उत्पत्तिके कारण ३१८-३१९.
५०६ मोक्षका स्वरूप और कारण ३१९-३२० ५०६-५००
३२०-२२१
५२१
ऊर्ध्वगमन के हेतु
३२१-३२२
ऊर्ध्वगमन के विषयमं दृष्टान्त ३२२-३२३ | मुक्तजीव लोकके अन्तमें ही क्यों
४९३
४९६
४९७
*४९७
४९८
४९८
४९९
४९९
५००
५००
५००
३१५-३१७ ५०४-५०५
३२३
५००
५०१
५०१
५०२
५०३
५०८
५०द्र
५०८
५०९
३२३-३२५ ५०९-५११