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इन्धसत्त्वनिरूपण
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विशेष शान अपेक्षित है। पारीर स्वयं पुदगलपिड है। यह चैतनके संसर्गसे चेतनायमान हो रहा है । जगतम रूम रस गन्ध और स्पर्शवाले यावत् पदार्थ पौद्गलिक हैं। पृथिवी जल अग्नि वायु सभो पौद्गलिक हैं। इनमें किसीमें कोई गुण उद्भूत रहता है किसीम कोई गुण । अग्निम रस अनुभूत है, वायुमै स्प अनुभव है जल में गन्ध अनुद्भुत है। पर, सर विभिन्न जातीय द्रव्य नहीं है किन्तु एक पुद्गलमय ही है । शब्द, प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि पुदगल स्कन्धकी पर्याय है। विशेषतः मुमुक्षके लिए यह जानना जरूरी है कि गरीर पद्गल है और आत्मा इससे पथक है। यद्यपि आज अशुद्ध देशामें आत्माका ९९ प्रनिशन विकास और प्रकाश शरीराधीन है। शरीरक पूजोंके बिगड़ते ही वर्तमान ज्ञानविकास रुक जाता है और सरीरक
नाश होनेपर वर्तमानशक्तियां प्रायः समाप्त हो जाती है फिर भी आत्मा स्वतन्त्र और पारीरक अतिमार्गदर्शकभी-उसमावखित्मपिरोविधिसागरमितहासाबमा अपने सूक्ष्म कार्मण शरीरके अनुसार वर्तमान
स्थूल शरीरकं नष्ट हो जानेपर भी दूसरे स्थूल शरीरको धारण कर लेता है। आज आत्माके मात्विक राजस या तामस सभी प्रकारके विचार या संस्कार शरीरको स्थितिके अनुसार विकसित होत है। अत: मुमुक्षुके लिए इस शरीर दगलकी प्रकृतिका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है, जिसमें वह इसका उपयोग आत्मविकासमें कर सके ह्रासमें नहीं। यदि उत्तेजक या अपथ्य आहार विहार होता है ना कितनाही पवित्र विचार करने का प्रयल किया जाय पर सफलता नहीं मिल रानती। इसलिए बरे सस्कार और विचारोंका शमन करनेके लिए या क्षीण करने के लिए उनके प्रब निमित्त भन शरीरकी स्थिति आदिका परिमान करना ही होगा। जिन पर पदासे आत्माको विरका होना है या उन्हें पर ममम. कर उनके परिणमन पर जो अनधिकृत स्वामित्वके दुर्भाव आरोपित हैं उन्हें नष्ट करना है उस परका कुट विशेष शान तो होना ही चाहिए, अन्यथा विरक्ति किससे होगी? सारांश यह कि जिसे बंघन होना है और जिससे बंधता है उन दोनों तत्वोंका यथार्थ दर्शन हुए बिना बन्ध परम्परा कट नहीं सकती। इस तत्वज्ञानके बिना चारित्रकी ओर उत्साह ही नहीं हो सकता। चारित्रकी प्रेरणा विचारोंसे ही मिलती है।
बन्ध-बन्ध दो पदार्थोंके विशिष्ट सम्बन्धको कहते हैं। बन्ध दो प्रकारका है-एक भावन्ध और दूसरा देव्यबन्ध । जिन राग द्वेष मोह आदि विभानोंसे कर्यवर्गणाओंबा बंध होता है उन रागादिभावोंको भावबंध कहते हैं और कर्मवर्गणाओंका आत्मप्रदेशोंसे सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध कहलाता है। द्रव्यबन्ध आत्मा और पुद्गलका है। मह निश्चित है कि दो द्रव्योंका संयोग ही हो सकता है नादात्म्य नहीं। पुद्गलाव्य परस्परमें बन्धको प्राप्त होते है सो एका वियोष प्रकारके संयोगको ही प्राप्त करते हैं। उनमें स्निग्धता और रूक्षता के कारण एक रासायनिक मिश्रण होता है जिससे उस स्कन्ध अन्तर्गत सभी परमाणुझोंकी पर्याय बदलती है और वे ऐसी स्थितिमें आ जाते हैं कि अमुक समय तक उन सबकी एक जैसी ही पर्याएं होती रहती हैं। स्कन्धके रूप 'रमादिका व्यवहार नदन्तर्गत परमाणुओंके कारसाधिपरिण मन की औसतसे होता है । कभी कभी एक ही स्कन्धके अमुक अंशम रूप रसादि अम्क प्रकार हो जाते हैं और दूसरी ओर दूसरे प्रकारके। एक ही आम स्वन्ध एक ओर पका पीला मीश और सुगन्धित हो जाता है तो दूसरी और हरा खट्टा और विलक्षण गन्धवाला बना रहना है। इससे स्पष्ट है कि स्कन्धमें शिथिल या दक्ष बन्धक अनुसार सदन्तर्गत परमाणुबोंके परिणमनकी औमनसे रूपरसादि व्यवहार होते हैं। स्कन्ध अपने में स्वतन्त्र कोई द्रव्य नहीं है। किन्तु वह अमुव परमाणओं की विशेष अवस्था ही है। और अपने आधारभूत परमाणुओंके अधीन ही उसकी दशा रहती है। पद्गलोक बन्धमें यही रासायनिकता है कि उस अवस्थामें उनका स्वतन्त्र विलक्षण परिणमन नहीं हो सकता किन्तु एक जैसा परिणमन होता रहता है। परन्तु आस्मा और कर्मपुद्गलोंका ऐसा रासायनिक मिश्रण हो ही नहीं सकता। यह बात जुदा है कि कर्मस्कन्धके आ जानेसे आत्माके परिणमनमें विलक्षणता आ जाय और आत्माकै निमित्तसे कर्मस्कन्धकी परिणति विलक्षण हो माय पर इमसे आत्मा और पुदगलकर्मके बन्धको रासायनिक मिश्रण 'नहीं कह सकते। स्पोंकि जीव और कर्मके बन्ध में दोनोंकी एक जमी पर्याय नहीं होती। जीवकी पर्याय चेतन