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दसवाँ अध्याय
आचार्य श्री सुविधितानको कारण
मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाञ्च केवलम् ।। १ ।।
मोहनीय कर्मक्षय होनेसे, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके क्षय होन तथा 'च' शब्द से तीन आयु और नामकर्मकी तेरह प्रकृतियोंके क्षय होने से केवल जान उत्पन्न होता है ।
मार्गदर्शक
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मोहनीयकी अठाईस, ज्ञानावरणकी पांच दर्शनावरणकी नौ और अन्तरायकी पाँच प्रकृतियों के क्षय होनेसे देवायु, तिर्यगायु और नरकायुकं क्षय होनेसे तथा साधारण, आतप, पञ्चेन्द्रियके बिना चार जाति, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म. तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी और उद्योत इन तेरह नामकर्मको प्रकृतियोंक क्षय होनेसे ( एकत्र सक प्रकृतियोंके क्षय से ) केवलज्ञान उत्पन्न होता है ।
प्रश्न- 'मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात् केवलम् ऐसा लघु सूत्र क्यों नहीं बनाया? उत्तर – कर्मके क्षयका क्रम बतलाने के लिये सूत्र में 'मोहक्षयात्' शब्दको पृथक रक्खा है । पहिले मोहनीय कर्मका क्षय होता है और अन्तर्मुहूर्त बाद ज्ञानावरणादिका क्षय होता है । कर्मों के क्षयका क्रम इस प्रकार है
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भव्य सम्यग्दृष्टि जीव अपने परिणामोंकी विशुद्धि से असंयत सम्यग्दृष्टि, देशसंयत. प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी चार पाया और दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । पुनः अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अधःकरण परिणामको प्राकर क्षपकश्रेणी चढ़ने के अभिमुख होता हुआ अपूर्वकरण परिणामोंसे अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त करके शुभपरिणामों से पापकमाँकी स्थिति और अनुभागको कम करता है और शुभ कर्मों के अनुभागको बढ़ाता है पुनः अनिवृत्तिकरण परिणामों से अतिवृत्तित्रादरसाम्पराय गुणस्थानको प्राप्त कर प्रत्याक्यान कषाय धार, अप्रत्याख्यान कषाय चार, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, क्रोध, मान और मायासंध्यनका वादरकृष्टि (उपायके द्वारा जिन कमी निर्जरा की जाती है उन कमको किट्टि या कृष्टि कहते हैं । किट्टि के दो हैं - बादरकृष्टि और सूक्ष्मदृष्टि) द्वारा क्षय करके लोभसंज्वलनको कृश करके सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक गुणस्थानको प्राप्त करता है । पुनः मोहनीयका पूर्ण क्षय करके क्षीणकषाय गुणस्थानको प्राप्तकर इस गुग्णस्थानके उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंकाय करके और अन्त्य समय में पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायों का क्षय करके जो केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त करता है ।
मोक्षका स्वरूप और कारण -
बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः || २ ||
बन्धके कारणों का अभाव (संबर) और निर्जराके द्वारा सम्पूर्ण कमौके नाश हो जाने को मोक्ष कहते हैं।