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________________ ४१८ तत्वार्थसि हिन्दी-सार [ ५।५८ रूपिणः पुद्गलाः ॥ ५॥ पुद्गल द्रव्य में रूप, रस, गन्ध और सर्श पाये जाते हैं इसलिये पुटुगल द्रव्य रूपी है। जिसमें पूरण और गलन हो वह पुद्गल है । पुद्गलके परमाणु,स्कन्ध आदि अनेक भेद हैं इसलिये सूत्र में पहुवचनका प्रयोग किया है। आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥६॥ आकाश पर्यन्त अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश- ये तीन द्रव्य एक एक हैं । जीव या पुद्गलकी तरह अनेक नहीं है। प्रश्न-'आ आकाशादेकैकम ऐसे लघु सूत्रसे ही काम चल जाता फिर व्यर्थ ही द्रव्य शब्दका ग्रहण क्यों किया.? उत्तर-उक्त द्रव्य द्रव्यकी अपेक्षा एक एक हैं लेकिन क्षेत्र और भावकी अपेक्षा असंख्यात और अनन्त भी हैं इस बातको बतलानेके लिये सूत्र में द्रव्य शब्दका महण आवश्यक है। निष्क्रियाणि च ॥ ७॥ ___धर्म, अधर्म और आकाश ये द्रव्य निष्क्रिय भी हैं। एक स्थानसे दूसरे स्थान में जाससोशिक कहलाहौर्य मम सामालियानापमहाद्राजों में नहीं पाई जाती इसलिये ये निष्क्रिय हैं। प्रश्न--यदि धर्म आदि द्रव्य निष्क्रिय है तो इनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उत्पत्ति क्रियापूर्वक होती है । उत्पत्तिके अभावमें विनाश भी संभव नहीं है। अतः धर्म आदि द्रव्योंको उत्पाद-व्यय और धौम्य युक्त कहना ठीक नहीं हैं ? उत्तर-यद्यपि धर्म आदि द्रव्यों में क्रियानिमित्तक उत्पाद नहीं है फिर भी इनमें दूसरे प्रकारका उत्पाद पाया जाता है। स्वनिमित्त और परप्रत्ययके भेदसे दो प्रकारका उत्पाद धर्म आदि द्रव्योंमें होता रहता है। इन द्रव्योंके अनन्त श्रगुरुलघु गुणों में छह प्रकारकी वृद्धि और छह प्रकारकी हानि स्वभावसे ही होती रहती है यही स्वनिमित्तक उत्पाद और व्यय है । मनुष्य आदिकी गति, स्थिति और अवकाशदानमें हेतु होने के कारण धर्म आदि द्रव्यांमें परप्रत्ययापेक्ष उत्पाद और विनाश भी होता रहता है। क्योंकि क्षण क्षणमें गति आदिके विषय भिन्न भिन्न होते हैं और विषय भिन्न होनेसे उसके कारणको भी भिन्न होना चाहिये ।। प्रश्न-क्रिया सहित जलादि ही मछली आदिकी गति आदिमें निमित्त होते हैं। धर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य जीवादिकी गति आदिमें हेतु कैसे हो सकते हैं? उत्तर-ये द्रव्य केवल जीवादिकी गति आदिमें सहायक होते हैं, प्रेरक नहीं । जैसे चक्षु रूपके देखने में निमित्त होता है लेकिन जो नहीं देखना चाहता उसको देखने की प्रेरणा नहीं करता । इसलिये धर्म आदि द्रव्योंको निष्क्रिय होनेपर भी जीवादिकी गति आदिमें इतु होनेमें कोई विरोध नहीं है। जीव और पुद्गलको छोड़कर शेष चार द्रव्य सक्रिय हैं। द्रव्यों के प्रदेशोंकी संख्याअसंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम् ॥ ८ ।। धर्म, अधर्म और एकजीवके असंख्यात प्रदेश होते हैं। जितने आकाशदेशमें एक
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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